पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२७३

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अष्टम दृश्य [श्रावस्ती के उपवन में श्यामा और शैलेन्द्र मद्यपान करते हुए शैलेन्द्र-प्रिये ! पहाँ आकर मन बहल गया। श्यामा-क्या वहां मन नहीं लगता था ? क्या रूप-रस से तृप्ति हो गयी? शैलेन्द्र- नहीं श्यामा ! तुम्हारे सौन्दर्य ने तो मुझे भुला दिया है कि मैं डाकू था। मैं स्वयं भूल गया हूँ कि मैं कौन था, मेरा उद्देश्य क्या था, और तुम ! एक विचित्र पहेली हो। हिंस्र पशु को पालतू बना लिया, आलसपूर्ण सौन्दर्य की तृष्णा मुझे किस लोक में ले जा रही है ! तुम क्या हो सुन्दरि ? (पान करता है) श्यामा-(गाती है)- निर्जन गोधूली प्रान्तर में खोले पर्णकुटी के द्वार, दीप जलाए बैठे थे तुम किए प्रतीक्षा पर अधिकार । बटमारों से ठगे हुए की ठुकराए की लाखों से, किसी पथिक की राह देखते अलस अकम्पित आंखों से- पलकें झुकीं यवनिका-सी थीं अन्तस्तल के अभिनय में। इधर वेदना श्रम-सीकर आँसू की बूंदे परिचय में । फिर भी परिचय पूछ रहे हो, विपुल विश्व में किसको हूँ? चिनगारी श्वासों में उठती, रो लूं, ठहरो दम ले लूं निर्जन कर दो क्षण भर कोने में, उस शीतल कोने में, यह विश्राम संभल जायेगा सहज व्यथा के सोने में। बीती वेला, नील गगन तम, छिन्न विपञ्ची, भूला प्यार, क्षपा-सदृश छिपना है फिर तो परिचय देगे आंसू-हार [शैलेन्द्र उसे पान कराता है) शैलेन्द्र-ओह, मैं बेसुध हो चला हूं-इस संगीत के साथ सौन्दर्य और सुरा ने मुझे अभिभूत कर लिया है । तब यही सही। [दोनों पान करते हैं, श्यामा सो जाती है] शैलेन्द्र-(स्वगत)-काशी के रस संकीर्ण भवन में छिपकर रहते-रहते चित्त घबरा गया था। समुद्रदत्त के मारे जाने का मैं ही कारण था. इसीलिये प्रकाश्य रूप से अजातशत्रु से मिलकर कोई कार्य भी नही कर सकता था। इस पामरी की गोद में मुंह छिपाकर कितने दिन बिताऊँ ? हमारे भावी कार्यों में अब यह विघ्नस्वरूप हो रही है। यह प्रेम दिखाकर मेरी स्वतन्त्रता हरण कर रही है। अब नहीं, इस गर्त में अब नही गिरा रहूँगा। कर्मपथ के कोमल और मनोहर कण्टकों को कठोरता से, निर्दयता से हटाना ही पड़ेगा । तब, आज से अच्छा समय कहाँ । अजातशत्रु : २५३