पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२७२

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अजातशत्र-(प्रवेश करके)-कहां गया ! मेरे क्रोध का कन्दुक, मेरी क्रूरता का खिलोना, कहां गया? रमणी ! शीघ्र वता-वह घमण्डी कोसल-सम्राट् कहाँ गया? मल्लिका -शान्त हो राजकुमार कुणीक ! शान्त हो। तुम किसे खोजते हो? बैठो। अहा, यह सुन्दर मुख, इसमें भयानकता क्यों ले आते हो ? सहज सुन्दर वदन को क्यों विकृत करते हो? शीतल हो, विश्राम लो। देखो, यह अशोक की शीतल छाया तुम्हारे हृदय को कोमल बना देगी, बैठ जाओ। अजातशत्रु-(मुग्ध-सा बैठ जाता है). -क्या यहीं प्रसेनजित् नहीं रहा अभी मुझे गुप्तचर ने समाचार दिया है। मल्लिका-हां, इसी आश्रम में उनकी शुश्रूषा हुई है और वे स्वस्थ होकर अभी-अभी गये हैं । पर तुम उन्हें लेकर क्या करोगे? तुम उष्ण रक्त चाहते हो, या इस दौड़-धप के बाद शीतल हिम-जल ? युद्ध मे जब यशार्जन कर चुके, तब हत्या करके क्या अब हत्यारे बनोगे? वीरों को विजय की लिप्सा होनी चाहिये, न कि हत्या की। अजातशत्र-देवि, आप कौन है ? हृदय नम्र होकर आप-ही-आप प्रणाम करने को झुक रहा है। ऐसी पिघला देने वाली वाणी तो मैंने कभी नहीं सुनी। मल्लिका-मैं स्वर्गीय कोसल-सेनापति की विधवा हूँ, जिसके जीवन से तुम्हारी बड़ी हानि थी और उसे षड्यन्त्र के द्वारा मरवा कर तुमने काशी का राज्य हस्तगत किया है। अजातशत्रु-यह षड्यन्त्र स्वयं कोसल-नरेश का था, क्या यह आप नहीं जानतीं? मल्लिका-जानती हूँ, और यह भी जानती हूँ कि सब मृत्पिड इसी मिट्टी में मिलेंगे। अजातशत्र-तब भी आपने उस अधम जीवन की रक्षा की! ऐसी ममा ! आश्चर्य ! यह देव-कर्तव्य.! मल्लिका-नहीं राजकुमार, यह देवता का नही, मनुष्य का कर्तव्य है। उपकार, करुणा, समवेदना और पवित्रता मानव-हृदय के लिये ही बने हैं। अजातशत्र- -क्षमा हो देवि ! मैं जाता हूँ-अब कोसल पर आक्रमण नहीं करूंगा। इच्छा थी कि इसी समय इस दुर्बल राष्ट्र को हस्तगत करूं, किन्तु नहीं; अब लौट जाता हूँ। मल्लिका-जाओ, गुरुजनों को सन्तुष्ट करो। (अजातशत्रु जाता है इश्या न्त र २५२: प्रसाद वाङ्मय