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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२७८

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जीवक-तो इससे क्या, हम अपना कर्तव्य पालन करते हैं, दु.ख से विचलित तो नही होते- लोभ सुख का नही, न तो डर है प्राण कर्तव्य पर निछावर है वसन्तक-तो इससे क्या? हम भी तो अपना पेट पालते है, अपनी मर्यादा बनाये रखते है, किसी और के दुख से हम भी टस-से-मस नही होते-एक बाल-भर भी नही, समझे ? और काम कितने सम पर और सुरीला करते है, सो भी जानते हो। जहां उन्होने आज्ञा दी कि "इसे मारो", हम तत्काल ही सम पर बोलते है कि "रोऽऽऽ" जीवक-जाओ रोओ! वसन्तक-क्या तुम्हारे नाम को? अरे रोएँ तुम्हारे-से परोपकारी, जो राजा को समझाया चाहते है। घण्टो बकवाद करके उन्हे भी तग करना और अपने मुख को भी कष्ट देना। जो जीभ अच्छा स्वाद लेने के लिए बनी है, उसे व्यर्थ हिलाना- डुलाना | अरे, यहाँ तो जब राजा ने एक लम्बी-चौडी आज्ञा सुनायी उसी समय "यथार्थ है श्रीमान्" कह कर विनीत होकर गर्दन झुका ली-बस इति श्री। नही तो राजसभा मे बैठने कौन देता है ! जीवक-तुम लोग-जैसे चाटुकारो का भी कैसा अधम जीवन है ! वसन्तक---और आप-जैसे लोगो का उत्तम ? कोई माने चाहे न माने-टांग अडाये जाते है ! मनुष्यता का ठीका लिये फिरते है । जीवक- -अच्छा भाई, तुम्हारा कहना ठीक है, जाओ, किसी प्रकार से पिंड भी छूटे ! वसन्तक-पद्मावती ने कहा है कि आर्य जीवक से कह देना कि अजात का कोई अनिष्ट न होने पावेगा। केवल शिक्षा के लिए यह आयोजन है । और, माताजी से विनती से कह देगे कि पद्मावती बहुत शीघ्र उनका दर्शन श्रावस्ती मे करेगी। जीवक - अच्छा नो क्या युद्ध होना ध्रुव है ? वसन्तक-हाँ जी, प्रसेनजित् भी प्रस्तुत है। महाराज उदयन से मन्त्रणा ठीक हो गयी है । आक्रमण हुआ ही चाहता है। महाराज बिम्बिसार की समुचित सेवा करने, अब वहाँ हम लोग आया हो चाहते है, पत्तल परसी रहे-समझे न ? जीवक-अरे पेटू, युद्ध मे तो कौए-गिद्ध पेट भरते है । वसन्तक-और इस आपस के युद्ध मे ब्राह्मण भोजन करेगे, ऐसी तो शास्त्र की आज्ञा ही है । क्योकि युद्ध से तो प्रायश्चित लगता है । फिर बिना, ह-ह-ह-ह.."। जीवक-जाओ महाराज, दण्डवत् । [दोनों जाते हैं] दृश्या न्त र २५८: प्रसाद वाङ्मय