पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२७९

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दशम दृश्य [मगध में छलना के प्रकोष्ठ में छलना और अजातशत्रु] छलना-बस थोड़ी-सी सफलता मिलते ही अकर्मण्यता ने सन्तोष का मोदक खिला दिया ! पेट भर गया ! क्या तुम भूल गये कि 'सन्तुष्टश्च महीपति'। अजातशत्रु-मां क्षमा हो। युद्ध में बडी भयानकता होती है, कितनी स्त्रियां अनाथ हो जाती हैं। सैनिक जीवन का महत्त्वमय चित्र न जाने किस षड्यन्त्रकारी मस्तिष्क की भयानक कल्पना है। मभ्यता से मानव की जो पाशव वृत्ति दबी हुई रहती है उसी को उत्तेजना मिलती है । युद्धस्थल का दृश्य बडा भीषण होता है । छलना-कायर ! आँखें बन्द कर ले | यदि ऐसा ही था, तो क्यों बूढे बाप को हटाकर सिंहासन पर बैठा ? अजातशत्रु--तुम्हारी आज्ञा से मां। मैं आज भी मिहामन से हटकर पिता की सेवा करने को प्रस्तुत हूँ। देवदत्त-(प्रवेश करके)-किन्तु अब वहुत दूर तक बढ आये, लौटने का समय नहीं है उधर देखो, कोसल और कौशाम्बी की सम्मिलित सेना मगध पर गरजती चली आ रही है। छलना-यदि उसी समय कोसल पर आक्रमण हो जाता, तो आज इसका अवकाश ही न मिलता। देवदत्त-समुद्रदत्त का मारा जाना आपको अधीर कर रहा है, किन्तु क्या समुद्रदत्त के ही भरोसे आप सम्राट् बने थे? वह निर्बोध विलासी-उसका ऐसा परिणाम तो होना ही था। पौरुष करने वाले को अपने बल पर विश्वास करना चाहिये। छलना-बच्चे ! मैने बड़ा भरोसा किया था कि तुम्हे भरतखण्ड का सम्राट देखूगी और वीरप्रसू होकर एक बार गर्व से तुमसे चरण-वन्दना कराऊँगी, किन्तु आह ! पति-सेवा से भी वञ्चित हुई और पुत्र का""। देवदत्त-नहीं, नही, राजमाता दुखी न हो, अजातशत्रु तुम्हारा अमूल्य वीर- रत्न है। रण की भयानकता देखकर तो क्षण भर के लिए वीर धनञ्जय का भी हृदय पिघल गया था! [सहसा विरुद्धक का प्रवेश]] विरुद्धक-माता, वन्दना करता हूँ। भाई अजात | क्या तुम विश्वास करोगे- मैं साहसिक हो गया हूँ। किन्तु मै भी राजपत्र हूँ और हमारा-तुम्हारा ध्येय एक ही है। अजातशत्रु-तुम्हें ! कभी नही, तुम्हारे षड्यन्त्र से समुद्रदत्त मारा गया, और"। अजातशत्रु : २५९