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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२९०

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, - शक्तिमती -तब क्या कह? दीर्घकारायण-विश्व भर में सब कर्म सबके लिए नहीं है, इसमें कुछ विभाग है अश्वय । सूर्य अपना काम जलता-बलता हुआ करता है और चन्द्रमा उसी आलोक को शी-लता से फैलाता है। क्या उन दोनों से परिवर्तन हो सकता है ? मनुष्य कठोर परिश्रम करके जीवन संग्राम में प्रकृति पर यथाशक्ति अधिकार करके भी एक शासन चाहता है, जो उसके जीवन का परम ध्येय है, उसका एक शीतल विश्राम हैं । और वह स्नेह-मेवा-करुणा की मूर्ति तथा सान्त्वना के अभय वरद हस्त का आश्रय, मानव- की सारी वृत्तियो की कुञ्जी, विश्व-शासन की एकमात्र अधिकारिणी प्रकृति स्परूपा स्त्रियो के सदाचारपूर्ण स्नेह का शासन है। उसे छोड़कर असमर्थता, दुर्बलता प्रकट करके इस दौड़-धूप मे क्यों पडती हो देवि ! तुम्हारे राज्य की सीमा विस्तृत है, और पुरुष की संकीर्ण । कठोरता का उदाहरण है पुरुष, और कोमलता का विशेषण है-स्त्रीजाति । पुरुष क्रूरता है तो स्त्री करुणा है-जो अन्तर्जगत् का उच्चतम विकास है, जिसके बल पर समस्त सदाचार ठहरे हुए है। इसीलिये प्रकृति ने उसे इतना सुन्दर और मनमोहक आवरण दिया है-रमणी का रूप, सगठन और आधार भी वैसे ही है। उन्हे दुरुपयोग मे न ले जाओ। क्रूरता अनुकरणीय नही है, उसे नारी-जाति जिस दिन स्वीकृत कर लेगी, उस दिन समस्त सदाचारो मे विप्लव होगा । फिर कैसी स्थिति होगी, यह कौन कह सकता है । शक्तिमती--फिर क्या पदच्युत करके मै अपमानित और पददलित नही की गयी? क्या यह ठीक था ? दीर्घकारायण-पदच्युत होने का अनुभव करना भी एक दम्भ-मात्र है । देवि ! एक स्वार्थी के लिए समाज दोषी नही हो सकता। क्या मल्लिका देवी का उदाहरण कही दूर है ! वही लोलुप नर पिशाच मेरा और आपका स्वामी, कोसल का सम्राट, क्या-उनके साथ कर चुका है, यह क्या आप नही जानती? फिर भी उनकी सतीसुलभ वास्तविकता देखिए और अपनी कृत्रिमता से तुलना कीजिये । शक्तिमती-(सोचती हुई) -कारायण यहाँ तो मुझे सिर झुकाना ही पड़ेगा। दीर्घकारायण-देवि ! एक दिन मे इस कोसल को उलट-पलट देता, छत्र- चमर लेकर हठात् विरुद्धक को सिंहासन पर बैठा देता, किन्तु मन के बिगाड़ने पर भी मल्लिका देवी का शासन मुझे सुमार्ग से न हटा सका, और आप देखेंगी कि शीघ्र ही कोसल के सिंहासन पर राजकुमार विरुद्धक बैठेगे, परन्तु आपकी मन्त्रणा के के प्रतिकूल। [विरुद्धक और मल्लिका का प्रवेश शक्तिमती-आर्या मल्लिका को मैं अभिवादन करती हूँ। दीर्घकारायण | मैं नमस्कार करता हूँ। (विरुद्धक माता का चरण छूता है) . २७० । प्रसाद वाङ्मय