पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/२९१

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मल्लिका-शान्ति मिले, विश्व शीतल हो। बहिन, क्या तुम अब भी राजकुमार को उत्तेजित करके मनुष्यता से गिराने की चेष्टा करोगी? तुम जननी हो तुम्हारा प्रसन्न मातृभाव क्या तुम्हे इसीलिये उत्साहित करता है ? क्या क्रूर विरुवक को देखकर तुम्हारी अन्तरात्मा लज्जित नही होती? शक्तिमती-वह मेरी भूल थी देवि ! क्षमा करना। वह बर्बरता का उद्रेक पा-पाशव-वृत्ति की उत्तेजना थी। मल्लिका-चन्द्र, सूर्य; शीतल, उष्ण, क्रोध, करुणा; द्वेष, स्नेह का द्वन्द संसार का मनोहर दृश्य है । रानी ! स्त्री और पुरुष भी उसी विलक्षण नाटक के अभिनेता हैं । स्त्रियों का कर्तव्य है कि पाशववृत्ति वाले क्रूरकर्मा पुरुषों को कोमल और करुणाप्लुत करें, कठोर पौरुष के अनन्तर उन्हे जिस शिक्षा की आवश्यकता है-उस स्नेह, शीतलता, सहनशीलता और सदाचार का पाठ उन्हे स्त्रियों से ही सीखना होगा हमारा यह कर्त्तव्य है। व्यर्थ स्वतन्त्रता और समानता का अहकार करके उस अपने अधिकार से हमको वचित न होना चाहिये। चलो, आज अपने स्वामी से क्षमा मांगो। सुना जाता है कि अजात और बाजिरा का व्याह होने वाला है, तुम भी उस नरसत्र मे अपने घर को सूना मत रक्खो। शक्तिमती-आपकी आज्ञा शिरोधार्य है देवि ! दीर्घकारायण -तो मै भी आज्ञा चाहता हूँ, क्योकि मुझे शीघ्र ही पहुंचना चाहिये। देखिए, वैतालिको की वीणा बजने लगी। सम्भवत. महाराज शीघ्र सिंहासन पर आया चाहते हे ।-(राजकुमार विरुद्धक से)-राजकुमार, मैं आप से भी क्षमा चाहता हूँ, क्योकि आप जिस विद्रोह के लिए मुझे आज्ञा दे गये थे, मैं उसे करने में असमर्थ था- अपने राष्ट्र के विरुद्ध यदि आप अस्त्र ग्रहण न करते, तो सम्भवतः मै आपका अनुगामी हो जाता, क्योकि मेरे हृदय मे भी प्रतिहिंसा थी। किन्तु वैसा न हो सका उममे मेरा अपराध नही । विरुद्धक-उदार सेनापति, मै हृदय से तुम्हारी प्रशसा करता हूँ और स्वयं तुमसे क्षमा मांगता हूँ। दीर्घकारायण-मै सेवक हूं युवराज ! (जाता है) दृश्या न्त र पंचम दृश्य 1 [कोसल की राजसभा, वर-वधू के वेश में अजातशत्रु और बाजिरा तथा प्रसेनजित्, शक्तिमती, मल्लिका विरुद्धक, वासवी और दीर्घकारायण का प्रवेश मल्लिका-बधाई है महाराज ! यह शुभ सम्बन्ध आनन्दमय हो ! अजातशत्रु : २७१