पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३०७

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प्रथम अङ्क प्रथम दृश्य [कानन में मनसा और सरमा] सरमा-बहन मनसा, मैं तो आज तुम्हारी बात सुनकर चकित हो गयी। मनसा-क्यों क्या तुमने यह समझ रखा था कि नाग जाति सदैव से इसी गिरी अवस्था में है ? क्या इम विश्व के रंगमञ्च पर नागो ने कोई स्पृहणीय अभिनय नही किया ? क्या उनका अतीत भी उनके वर्तमान की भाति अन्धकारपूर्ण था। सरमा, ऐसा न समझो। आर्यों के सदृश उनका भी विस्तृत राज्य था, उनकी भी एक संस्कृत थी। सरमा-जब मैंने प्रभास के विप्लव के बाद अर्जुन के साथ आते हुए नागराज वासुकि को आत्म-समर्पण किया था, तब भी इस साहमी और वीर जाति पर मेरी श्रद्धा थी। श्रीकृष्ण की उस अपूर्व प्रतिभा ने मेरी नस-नस मे मनुष्य मात्र के प्रति एक अविचल प्रीति और स्वतन्त्रता भर दी थी। शूद्र, गोप से लेकर ब्राह्मण तक की समता और प्राणी मात्र के प्रति समदर्शी होने की अमोघ वाणी उनके मुख से कई बार मुनी थी। वही मेरे उस आत्म-समर्पण का कारण हुई। मनसा-क्या कहूँ, जिसकी तू इतनी प्रशंसा कर रही है. उसी ने इस जाति का अधःपात किया है। और नही तो क्या प्रबल नाग जाति गेग या शौर्य मे आर्यो से कम थी? जब नागों ने आभीरो के साथ मिल कर यादवियों का हरण किया था, तब धनञ्जय की वीरता भी विचलित हो गई थी ! सरमा-(बिगड़ कर) बहन, वह प्रसंग न छेडो ! वह आर्यों के लिए लज्जाजनक अवश्य है, किन्तु उनकी वीरता पर कलक नही है । क्या मैं तुम्हारे भाई पर मुग्ध होकर अपनी इच्छा से नही चली आई ? क्या और भी अनेक यादवियाँ अपने चरित्र-पतन की पराकाष्ठा दिखला कर उन आक्रमणकारियो के साथ नही चली गयी? उसमें कुछ नागों की वीरता न थी। जिनको रक्षा करनी थी, स्वयं वे ही जब लुटेरों को आत्म-समर्पण कर रही थी तब अर्जुन की वीरता क्या करती ? मनसा-जब उनमे कोई बात ही न थी, तब फिर वे क्यों आयी ! सरमा-मैं व्यंग सुनने नहीं आई हूँ ! श्रीकृष्ण ने पददलितों की जिस स्वतन्त्रता जनमेजय का नाग यज्ञ : २८७