पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३०८

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और उन्नति का उपदेश दिया था, वह आसुरी भावों से भरकर उद्दाम वासना में परिणत हो गई। धर्म-सस्थापक ने जातीय पतन का वह भीषण आन्तरिक संग्राम भी अपनी आँखों देखा, किन्तु इस औद्धत्य को रुकते न देखकर उन्हे प्रकृति के चक्र मे पिस जाने दिया। यदि वे चाहते तो यादवो का नाश न होता। किन्तु हाँ, उसका परिणाम अन्य जातियो के लिए भयानक होता। और, मनमा यह समझ रखना कि कुकुर वश से-यादवो की यह कन्या सरमा किसी के सिर का बोझ, अकर्मण्यता की मूर्ति होकर-नही आयी है। इस वक्षस्थल मे अबलाओ का रुदन ही नही भरा है। मनसा-हां मरमा, मुझमे भी ओजपूर्ण नाग-रक्त है। इस मस्तिष्क मे अभी तक राजेश्वरी होने की कल्पना खुमारी की तरह भरी हुई है। वह अतीत का इतिहास याद करो, जब सरस्वती का जल पीकर स्वस्थ और पुष्ट नाग जाति कुरुक्षेत्र की सुन्दर भूमि का स्वामित्व करती थी ! जब भरत जाति के क्षत्रियो ने उन्हे हटने को विवश किया, तब वे खाण्डव-वन मे अपना उपानिवेश बनाकर रहने लगे थे। उस समय तुम्हारे कृष्ण ने साम्य और विश्वमैनी का जो मन्त्र पढा था, क्या उसे तुम सुनोगी? और जो नृशसता आर्यों ने की थी, उसे आँखो से देखोगी ? लो, देखो मेरा मन्त्रबल, प्रदोष की गाढी नीलिमा मे अपनी ऑखे गडा दो। सावधान । [कुछ बढ़ती हुई क्षितिज की ओर अपना दाहिना हाथ फैलाती है, और उसके तमिल पटल पर खाण्डव की सीमा प्रकट होती है, अर्जुन और श्रीकृष्ण आते है] अर्जुन-भयानक जन्तुओं से पूर्ण यह खाण्डव-वन देकर उन लोगो हमे अच्छा मूर्ख बनाया | क्या हम लोग भी जगली हैं जो वृक्षो के पत्ते पहन कर इन भयानक जन्तुओं के साथ इसी मे निवास करेगे ? सम्वे कृष्ण ! यह कपटपूर्ण व्यवहार असह्य है। श्रीकृष्ण-अर्जुन | पृथ्वी पर कही-कही अब तक मनुष्यो और पशुओ मे भेद नही है । मनुष्य इसीलिये है कि वे पशु को भी मनुष्य बनावे । तात्पर्य यह कि सारी सृष्टि एक प्रेम की धारा मे बहे और अनन्त जीवन लाभ करे । अर्जुन-किन्तु यह विषमता-पूर्ण विश्व क्या कभी एक-सा होगा ? क्या जड़- चेतन, सुख-दुःख, दिन-रात, पाप-पुण्य आदि द्वन्द्व कभी एक हागे ? क्या इनकी समता होगी ? मनुष्य यदि चेष्टा भी करे तो क्या होगा? श्रीकृष्ण-सखे । सृष्टि एक व्यापार है, कार्य है। उसका कुछ-न-कुछ उद्देश्य अवश्य है। फिर ऐसी निराशा क्यो ? द्वन्द्व तो कल्पित है, भ्रम है। उसी का निवारण होना आवश्यक है। देखो, दिन का अप्रत्यक्ष होना ही रात्रि है, आलोक का २८८ प्रमाद वाङ्मय