पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३०९

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अदर्शन ही अन्धकार है। ये विपक्षी द्वन्द्व अभाव हैं। क्या तुम कह सकते हो कि अभाव की भी कोई सत्ता है ? कदापि नही। अर्जुन-पर यदि कोई दुःख, रात्रि, जडता पाप आदि को ही सत्ता माने, और अन्धकार को ही निश्चल जाने, तो? श्रीकृष्ण - तो फिर जीव दुख के भंवर में भी आनन्द की अभिलाषा क्यों करता है ? रात्रि के अन्धकार में दीपक क्यों जलाता है क्या यह वास्तविकता की ओर उसका झुकाव नही है ? वयस्य, जिन पदार्थो की शक्ति अप्रकाशित रहती है, उन्हें जड कहते है। वे जब किसी विशेष मात्रा मे मिलते है, तब उनमे एक शक्ति उत्पन्न होती है, स्पन्दन होता है जिसे जडता नही कह सकते। वास्तव मे सर्वत्र शुद्ध चेतन है, जडता कहाँ ? यह तो एक भ्रमात्मक कल्पना है । यदि तुम कहो कि इनका तो नाश होता है, और चेतन की सदैव स्फूर्ति रहती है, तो यह भी भ्रम है। सत्ता कभी लुप्त भले ही हो जाय, किन्तु उसका नाश नहीं होता। गृह का रूप न रहेगा तो ईटे रहेगी, जिनके मिलने पर गृह बने थे। वह रूप परिवर्तित हुआ, तो मिट्टी हुई, राख हुई, परमाणु हुए। उस चेतन के अस्तित्व की सत्ता कही नही जाती और न उगा पनमय स्वभाव उममे भिन्न होता है।' वही एक 'अद्वैत' है। यह पूर्ण सत्य है कि जड़ के रूप मे चेतन प्रकाशित होता है। अखिल विश्व एक सम्पूर्ण सत्य है। अमत्य का भ्रम दूर करना होगा, मानवता की घोषणा करनी होगी, सबको अपनी समता मे ले आना होगा। अर्जुन-तो फिर यह बताओ कि यहाँ क्या करना होगा। तुम तो सखे, जाने कैसी बाते करते हो, जो समझ मे ही नही आती, और समझने पर भी उनको व्यवहार मे लाना बहुत दुरूह हे । झाड़ियो मे छिप कर दस्युना करनेवाली और गुञ्जान जंगलो मे पशुओं के समान दौड़ कर छिप जाने वाली इस नाग जाति को हम किस रीति से अपनी प्रजा बनावे ? ये न तो सामने आर लडते है और न अधीनता ही स्वीकृत करते है । अब तुम्ही बताओ, हम क्या करे ? श्रीकृष्ण-पुरुषार्थ करो, जडता हटाओ। इस वन्य प्रान्त मे मानवता का विकाम करो जिसमें आनन्द फैले । सृष्टि को सफल बनाओ। अर्जुन-फिर वही पहेली ! यह बताओ कि इस समय हम क्या करें ! क्या इन पेड़ों पर बैठकर इन्हे सिंहासन समझ ले। क्या गीदड़ो और लोमड़ियों को अपनी प्रजा तथा भयानक मिहो को अपना शत्रु समझ कर उनसे सन्धि-विग्रह करें, और सदा इन नागों के किए आक्रमणों से क्षुब्ध रहे ? न १. चिति का स्वरूप यह नित्य जगत् वह रूप बदलता है ३ त-शत (कामायनी- दर्शनसर्ग)। जनमेजय का नाग यज्ञ : २८९