पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३११

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मनसा-देखा दायवी ! कैसी विलक्षणता है ! यह बनावटी परोपकार, और ये विश्व के ठेकेदार ! ओह, इन्हींकी तुस प्रशंसा करती हो. जनके अत्याचार से निरीह नागों का निर्वासन हुआ, और दुर्गम हिमावत चोटियों के मार्ग से कष्ट सहते हुए उन्हें इस गान्धार देश की सीमा में आना पड़ ! देखो, अपने आर्यों की यह समता ! फिर यदि नागों ने आभीरों मे मिल कर यादवियों का अपहरण किया, तो क्या बुरा किया ? यदि नागराज तक्षक ने शृंगी ऋषि से मिलकर परीक्षित का संहार किया, तो क्या अनिष्ट किया ? इस विश्व में बुराई भी अपना अस्तित्व चाहती । मैंने नागजाति के कल्याण के लिए अपना यौवन एक वृद्ध तपस्वी ऋषि को अर्पित कर दिया है। केवल जातीय प्रेम से प्रेरित होकर मैंने अपने ऊपर यह अत्याचार किया है ! सरमा-और मैंने विश्व-मंत्री तथा साम्य को आदर्श बना कर नाग-परिणय का यह अपमान सहन किया है ! मायाविनी, यह कैसा कुहक दिखाया ! ओह ! अभी तक सिर घूम रहा है ! मनसा-बिलकुल इन्द्रजाल है यादवी ! यह विद्या हम नागों की पैतृक सम्पत्ति है। सरमा-किन्तु यह जानकर भी तुमने उलटी ही बात सोची! आश्चर्य है ! मनसा तुम्हारा कलुषित हृदय कैसे शुद्ध होगा ? मनसा-आर्यों को इसका प्रतिफल देकर । उन्हें इस हृदय की प्रतिहिंसा भोगनी पड़ेगी। अब पाण्डवों की वह गरमा-गरमी नहीं रही। यह नागजाति फिर एक बार चेष्टा करेगी, परिणाम चाहे जो हो । सरमा-अभागिनी नागिनी ! श्रीकृष्ण के इस महत् उद्देश्य का उलटा अर्थ लगाती है ! जो प्राकृतिक नियमों को सामने रखकर सब की शुभकामना रखता था, उसे अपवाद लगाती है ! भला तेरा और तेरी जाति का उद्धार कैसे होगा ? अपना सुधार न कर तू दूसरों के दोष ही देखेगी। जो वास्तव में तेरी ही परिस्थिति बदल कर तेरी उन्नति करने की चेष्टा करता उसे संकीर्णता से अपना शत्रु समझती है ! हाँ, मैं कैसे भ्रम में थी ! विषम को सम करना चाहती थी, जो मेरी सामर्थ्य के बाहर था। स्नेह से मैं सर्प को अपनाना चाहती थी; किन्तु उसने अपनी कुटिलता न छोड़ी। बस, अब यह जातीय अपमान मैं सहन नहीं कर सकती। मनसा, मैं जाती हूँ। वासुकि से कह देना कि यादवी सरमा अपने पुत्र को साथ ले गयी। मैं अपने सजातियों के चरण सिर पर धारण करूँगी, किन्तु इन हृदय-हीन उद्दण्ड बर्बरों का सिंहासन भी पैरों से ठुकरा दूंगी। (सवेग प्रस्थान) १. अरे सर्ग अंकुर के पल्लव दोनों हैं ये भले बुरे। एक दूसरे की सीमा हैं क्यों न युगल को प्यार करें।।-कामायनी , जनमेजय का नाग यज्ञ: २९१