पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३१२

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? मनसा F- -जा न, मेरा क्या बिगड़ता हैं ! [वासुकि का प्रवेश] वासुकि-बहन, यह तुमने क्या किया ! सरमा को इस तरह उत्तेजित करके उसे चले जाने देना अच्छा हुआ मनसा-तो जाओ, उसे मना लाओ ! वासुकि -हमे साहस नही होता । बहन, तुमने, अपने रूग्वे व्यवहार से जरत्कारु को भी यहां न रहने दिया। हम लोग आर्थो से मेल करने की जो चेष्टा कर रहे है, उस पर उसका कैमा प्रभाव पडेगा ? मनसा कैसा प्रभाव पडेगा, यह तुम जानो। मुझे क्या ? जरत्कारु गये, तो क्या हुआ, मेरा नाम भी तो तुम लोगो ने जरत्कारु ही रख दिया है। क्या अब कोई दूसरा नाम बदलोगे? वासुकि-बहन, व्यंग न बोलो। तुम्हारी इच्छा से ही ब्याह हुआ था, किसी ने कुछ दवाव डालकर नही किया था। नागो के उपकार के लिए तुमने स्वयं ही- मनसा-बस बस ! कापरो की संख्या न बढाओ। नागो के विश्व-विश्रुत कुल मे तुम्हारे सदृश व्यक्ति भी उत्पन्न होगे, ऐसी सम्भावना न थी । रमणियो के आँचल मे मुंह छिपा कर आर्यों के समान वीर्यशाली जाति पर बाण वरसाना चाहते हो ! अब मुझसे यह महन न होगा ! मै यह पाखण्ड नहीं देख सकती ! खाण्डव की ज्वाला के समान जल उठो ! चाहे उसमे जार्य भम्म हो, और चाहे तुम ! इस नीच अभिनय की आवश्यकता नही । (रावेग प्रस्थान) दृश्या न्त र द्वितीय दृश्य उत्तंक-(स्वगत) गुरुदेव को गये महीनो हो गये, अव इस गुरुकुल मे मन नही लगता । क्या करूं मेरा अध्ययन तो कभी ममाप्त हो गया है किन्तु गुरुदेव की आज्ञा है कि 'जब तक हम न आवे तुम घर न जाना।' इसलिए मुझे ठहरना ही पड़ेगा। अहा, सायंकाल ममीप है । अग्नि-शाला की परिचर्या का भार मुझी पर है। अभी दीपक नही जला। और भी कई काम है। अच्छा तो चलं, नही तो गुरु-पत्नी आने पर बाते सुनावेगी, (घूमकर) अच्छा, फूल तो चुनता चलूं । (फूल चुनता हुआ) अहा, मुझे भी यह सरल छात्रजीवन छोडकर जटिल संसार के कुटिल कर्मपथ पर अग्रसर होना पड़ेगा। यह गुरुकुल इस जीवन यात्रा का पहला पत्थर है। यही चतुष्पथ है । किम मार्ग पर चलूं । [दामिनी का प्रवेश] २९२: प्रसाद वाङ्मय