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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३१४

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दामिनी क्यों उत्तंक, ऋतु में ही सब विकसित होते हैं, क्या यह भी नियम है? उत्तंक-और नहीं तो क्या ! दामिनी--और जो फूल ऋतु में विकसित हो, उसे अपनी तृप्ति के लिए तोड़ लेना चाहिये, नहीं तो वह कुम्हला जायगा, व्यर्थ झड़ जायगा। इमलिये उसका उपयोग कर लेना चाहिये । क्यों, यही बात है न ? उत्तंक-और नहीं तो क्या ! फूल सूंघने से हृदय पवित्र होता है, मेधा-शक्ति बढ़ती है, और मस्तिष्क प्रफुल्लित होता है। दामिनी-तुम्हारा सिर होता है । उत्तंक हैं-है, आप रुष्ट क्यों होती हैं ? दामिनी- नही उत्तंक, भला मैं तुमसे रुष्ट हो सकती हूँ ? वाह, यह भी अच्छी कही । अच्छा लो, तुम इन्हीं फूलों की एक माला बनाओ, और तब मैं कुछ गाऊँ । उत्तंक-जो आज्ञा । (माला गूंथने लगता है) दामिनी-(गाती है)- अनिल भी रहा लगाये घात मैं बैठी द्रुम-दल समेट कर, रही छिपाये गात खोल कणिका के कपाट वह निधड़क आया प्रात बरजोरी रस छीन ले गया, करके मीठी बात (उत्तंक को देखती हुई) तुम्हारी माला ! उत्तंक-वाह ! आप गा चुकी ? इधर मेरी माला भी बन गयी, देखिये ! दामिनी-(माला देखती हुई) हाँ जी, तुम तो इस विद्या में सिद्धहस्त हो, किन्तु इसे मुझे पहना दो। नही-नहीं, मेरे जूड़े मे लगा दो। मुझसे नही लगेगा। उत्तंक-यह तो मुझे भी नहीं आता। [दामिनी उसका हाथ पकड़कर बताती है, उत्तंक जूड़े में माला लगाता है] उत्तंक-अब ठीक लगी, अब यह नही गिरने को। ऐं ! आपका शरीर न जाने क्यों कांप रहा है। दामिनी-मूर्ख ! उत्तंक-क्षमा कीजिए, जाता हूँ। (प्रस्थान) दामिनी-जिसे आत्म-संयम की इतनी शिक्षा मिलनी थी, उसे हाड़-मांस के मनुष्य का शरीर क्यों मिला? क्यों न उसे छाया-शरीर मिला ! (बैठ जाती है) [उत्तंक का पुनः प्रवेश] उत्तंक-गुरुदेव आ गये। २९४: प्रसाद वाङ्मय