पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३१५

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दामिनी-(प्रकृतिस्थ होकर) उत्तंक मेरी इन बातों को भूल जाना ! मुझे क्षमा करना! उत्तंक–देवि, मैं नहीं समझ सका, आप क्या कहती हैं ? चलिये (देखकर) लीजिये, वे तो इधर ही आ रहे हैं। [वेद का प्रवेश] दामिनी-आर्यपुत्र, अपने बड़ा विलम्ब किया। मुझे इस तरह अकेली छोड़ना आपकी बड़ी भूल है। वेद-किन्तु देवि ! मैं धर्य को तुम्हारे पास छोड़ गया था। क्या उसने भी साथ नहीं दिया? दामिनी-उत्तंक भी घर जाने के लिए उत्सुक है। वह अब यहां से शीघ्र जाना चाहता है । इसकी भी मुझे बड़ी चिन्ता रहती थी। वेद-लो, मैं ठीक समय पर आ पहूंचा । अब न तुम्हें मेरी भूल दिखायी पड़ेगी, और न उत्तंक को घर जाने के लिए घबराहट ही होगी ! वत्म उत्तंक ! तुम पर मैं अन्तःकरण से प्रसन्न हूँ। तुम्हारे शील विद्या को भी अलंकृत कर दिया है। अब तुम घर ना पकते हो। यद्यपि अभी मुझे इन्द्रप्रस्थ जाना पड़ेगा, पर मैं उसका कोई- न-कोई प्रबन्ध कर लूंगा। जनमेजय का अभिषेक होने वाला है। वह तक्षशिला विजय करके आया है। किन्तु काश्यप इसके विरुद्ध है। जब बुलावा आवेगा, तब जाने का प्रबन्ध करूंगा। उत्तंक-क्यों गुरुदेव ! काश्यप तो जनमेजय का पुरोहित है। फिर वह इसके विरुद्ध क्यों है ? वेद-राजकुल पर विशेष आतंक जमाने के लिए प्रायः वह विरोधी बन जाया करता है, और फिर पूरी दक्षिणा पा जाने पर प्रसन्न होता है । पर राजकुल भी उससे आन्तरिक द्वेष रखता है। उत्तंक-अच्छा तो देव, गुरुदक्षिणा के सम्बन्ध में क्या आज्ञा होती है ? वेद--सौम्य, मैं तुमसे इसी तरह प्रसन्न हूँ, दक्षिणा की कोई आवश्यकता नहीं। उत्तंक-बिना दक्षिणा दिये विद्या सफल नहीं होती। कुछ तो आज्ञा कीजिये । वेद-अच्छा, तो तुम अपनी इस सतृष्ण गुरु-पत्नी से पूछ देखो। उत्तंक-आयें, क्या आज्ञा है ? दामिनी-यदि मुझसे पूछते ही तो रानी के मणि-कुण्डल ले आओ ! उन्हें पहनने की बड़ी अभिलाषा है। [वेद उसकी ओर सक्रोध देखते हैं] उत्तंक-गुरुदेव, यही होगा ! कल मैं आऊँगा। (प्रस्थान) जनमेजय का नाग यज्ञ: २९५