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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३२६

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[तक्षक छुरा चलाना चाहता है, वासुकि आकर हाथ पकड़ लेता है] वासुकि-नागराज, क्षमा करें। यह मेरी स्त्री है। तक्षक-वासुकि, तुम विद्रोह करनेवाली को दण्ड से बचाते हो ! वासुकि-फिर भी यह मेरी स्त्री है । नागराज ! सरमा और उत्तंक मुक्त हैं । वे जहां चाहे, जा सकते हैं। सरमा-यह आर्य-संसर्ग का ही प्रताप है। नागराज, आप मेरे पति हैं, किन्तु आपका मार्ग भिन्न है और मेरा भिन्न । फिर भी मेरा अनुरोध है कि जब अवसर मिले, इसी तरह मनुष्यता को व्यवहार में लाइयेगा। अपने आपको सर्प की सन्तान मानकर कुटिलता और क्रूरता की ही उपासना मत कीजियेगा ! वासुकि -या पति होने के कारण तुम पर मेरा कुछ भी अधिकार नहीं ? अब मैं तुम्हें न जाने दूंगा। सरमा-आपको और सब अधिकार है, पर मेरी सहज स्वतन्त्रता का अपहरण करने का नही। वासुकि-इसका अर्थ ? सरमा-इसका अर्थ यही है कि मैं आपके साथ चलूंगी, पर अपमानित होने के लिये नही ! आपको प्रतिज्ञा करनी पड़ेगी। वासुकि-मैं प्रतिश्रुत होता हूँ। सरमा-अच्छी बात है। [सब जाते हैं, दृश्या न्त र]] षष्ठ दृश्य [गुरुकुल में त्रिविक्रम और दो विद्यार्थी] त्रिविक्रम-अरे चुप भी रहो ! क्या टॉय-टॉय कर रहे हो ! पहला विद्यार्थी-अरे भाई, अब दूसरी शाखा का अध्ययन प्रारम्भ करूंगा। यह अब समाप्त हो चली है । थोड़ा-सा और परिश्रम हे । त्रिविक्रम -शाखा ! किसकी शाखा? पहला विद्यार्थी-वेद की। त्रिविक्रम-वेद ! चुप मूर्ख ! गुरुजी क्या कोई वृक्ष है, जो उनमें शाखायें होंगी? पहला विद्यार्थी-भाई हँसी मत करो। मैं श्रुति के लिए कह रहा हूँ। त्रिविक्रम पहला -सो तो मैं सुनता हूँ। अच्छा बताओ तो पढ़कर करोगे क्या? इस शाखामृग का अनुकरण करने से क्या लाभ होगा ? पहला विद्यार्थी-विद्ययाऽमृतमश्नुते । ३०६ : प्रसाद वाङ्मय