पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३२५

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तक्षक-अब तो नहीं हूँ, पर हां, कभी था। आप बैठिये। [उत्तंक बैठता है। फिर थककर सो जाता है, काश्यप का प्रवेश] तक्षक-क्यो काश्यप, इसने मणिकुण्डल कहाँ रक्खे होगे ? काश्यप-अपने उष्णीष मे। हट जाता हूँ। तुम्हे देखकर मुझे डर लग रहा है । तुम इतने भयानक क्यो दिखाई देते हो ? तक्षक-महात्मन्, आप जब अपना धर्म करने लगते है, जब यज्ञ करने लगते है, तब आप भी मुझे इतने ही भयानक दीख पडते है। जब पशुओ की कातर दृष्टि आपको प्रसन्न करती है, तब सच्चे धार्मिक व्यक्ति का जी कांप उठता होगा। काश्यप-अजी वह तो धर्म है, कर्तव्य है ! तक्षक-किन्तु हम असभ्य जगली लोग धर्म को पवित्र, अपनी मानवी प्रवृत्ति से परे, एक उदार वस्तु मानते है। अपनी आवश्यकता को, अपनी लालसामयी दुर्बलता को उसमे नही मिलाते। उसे बालक की निर्मल हँसी के समान अछुती रहने देते हैं। पाप को पाप ही कहते है, उस पर धर्म का मिथ्या आवरण नही चढाते । काश्यग- बस करो। नागराज, अभी तुमको यह भी नहीं मालूम कि पाप और पुण्य किसे कहते है। इन सूक्ष्म तत्त्वो को समझना तुम्हारी मोटी बुद्धि और सामर्थ्य के बाहर है जो तस्करता करना चाहते हो, वह करो। आर्यों को यह कला नही सिखलायी गयी है। [तक्षक छुरी निकालता है। काश्यप चिल्लाता है-'हैं हैं, ब्रह्महत्या न करो।' तक्षक उसे ढकेल कर उत्तंक का उष्णीष लेना चाहता है उत्तंक जाग उठता है। तक्षक छुरा मारना चाहता है। सरमा दौड़ती हुई आती है और तक्षक का हाथ पकड़ लेती है। तक्षक उत्तंक को छोड़कर उठ खड़ा होता है] सरमा-नृशंस तक्षक । तक्षक-तुझे इस विश्वामघात का प्रतिफल मिलेगा। परिणाम भोगने के लिए प्रस्तुत हो जा । आज यह छुरी तेरा ही रक्त-पान करेगी। उत्तंक -पामर ! तुझे लज्जा नही आती? सोये हुये व्यक्ति को मार डालना चाहता था, अब नारी की हत्या करना चाहता है ! तक्षक -अरे, तुझमे भी नागराज तक्षक को ललकारने का साहस है ! देखू तो, अपने-आपको या पापिनी सरमा को कैसे बचाता है ! (छुरी उठाता है) उत्तंक-यदि ब्राह्मण हूँगा, यदि मेरा ब्रह्म नर्य और स्वाध्याय सत्य होगा, तो तेरा कुत्सित हाथ चल ही न सकेगा। हत्याकारी दस्यु को यह अधिकार नही कि वह सत्यशील ब्रह्मतेज पर हाथ चला सके ! पाखण्डी, तेरा पतन समीप है। २० जनमेजय का नाग पश: ३०५