पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३३३

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. मणिमाला-(सम्भ्रम से) -स्वागत ! माननीय अतिथि, आपको इस गुरुकुल का आतिथ्य अवश्य ग्रहण करना चाहिये। नहीं तो कुलपति सुनकर हम लोगों पर रुष्ट होंगे। जनमेजय-उदारशीले, धन्यवाद ! इस समय मुझे आवश्यक कार्य है। फिर कभी आकर उनके दर्शन करूंगा। मणिमाला-मैं समझ गयी । आप मुझे शत्रु-कन्या समझते है, इसीलिये- जनमेजय-नही भद्रे, तुम्हारे इस सरल मुख पर तो शत्रुता का कोई चिह्न ही नही है । ऐसा पवित्र सौन्दर्यपूर्ण मुख-मण्डल तो मैंने कही नही देखा । मणिमाला-(लज्जित होकर)-आप आर्य जाति के सम्राट् है न ! जनमेजय-विन्तु मै तो तुम-सी नागकुमारी की प्रजा होना भी अच्छा समझता हूँ। (जाता है) मणिमाला-(उधर देखती हुई)-ऐसी उदारता-व्यञ्जक मूर्ति, ऐसा तेजोमय मुख-मण्डल ! यह तो शत्रुता करने की वस्तु नही है . (कुछ सोचकर) मैं ही भ्रम मे हूँ। मैं जिसका सुन्दर व्यवहार देखती हूँ, उसी के साथ मेरा स्नेह हो जाता है। ही, नहीं, यह मेरी विश्वमैत्री का उम सरमा यादवी की शिक्षा का फल है। किन्तु यहाँ तो अन्त:-करण म एक तरह की गुदगुदी होने लग गयी ! [गुनगुनाते हुए शीला का प्रवेश] मणिमाला -आओ सखि ! मै तो बडी देर से तुम्हारी राह देख रही हूँ। तुमको तो गाने से छुट्टी नही मिलती। मार्ग पर चलते हुए भी गाती रहती हो। ला--सखि | अपना वर ढूंढती फिरती हूँ। मणिमाला-अरे, तुम्हारा तो ब्याह हो चुका है न ? शीला - क्या तुम पागल हो गयी हो ! मी तो बात पनी हुई थी। मणिमाला-हां, हॉ, सखि ! मै भूल गई थी। शोला-और जव किमी से तुम्हारा व्याह हो जाय, तब भी कभी-कभी इसी तरह पति को भूल जाना, दूगरा वर ढूंढने लगना ! मणिमाला-चलो | तुम भी ठठोल हो। अरे क्या सोमश्रवा तुझे मनोनीत नही है ? शीला-अब तो नही है। मणिमाला-क्यो, क्या इतने ही दिनो मे बदल गये? शीला -नही सखि ! एक बड़ी भयानक बात हो गई है। भावी पति सोमश्रवा मुझसे ब्याह कर लेने पर पौरव-सम्राट् जनमेजय के राजपुरोहत बनेगे। मणिमाला -तब तो तुम्हे और भी प्रसन्न होना चाहिये । जनमेजय का नाग यज्ञ: ३१३