पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३४०

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अप्सरे ! तुम्हारी सेवा का अवसर मिले। बस ! अच्छा जब तक मैं पी रहा हूँ, किसी को कोमल कण्ठ से कुछ गाना चाहिये। कौन है ? (देखकर) अरे तुम कौन हो? यहां क्यों छिपी हो? तुम सुन्दर तो हो ! गाना भी अवश्य जानती होगी, क्योंकि सुन्दर स्त्रियां गाना और रोना दोनों अच्छी तरह जानती हैं। दामिनी-अश्वसेन, आज तुमने अधिक सुरा पी ली है। मैं तुम्हारी आश्रिता हूँ, मेरा अपमान न करो। मुझे इस समय छोड़ दो। अश्वसेन--अपमान ! यह तो आदर है, शिष्टता है ! मेरे साथ नाचना, इसमें अपमान ! मैं नागराज कन्या -नही, मै कुमार ! दामिनी-मै तुम्हारे पिता को बुलाती हूं, नही तो मुझे छोड़ दो। अश्वसेन---तुम भी कमी अरसिका हो ! इस आनन्द मे बुड्ढे पिता का क्या काम ? (आगे बढ़ता है) दामिनी-हटो, नही तो अभी- अश्वसेन--अच्छा तुम एक बार अत्यन्त क्रुद्ध हो जाओ। फिर मैं तुम्हें मनाऊंगा । बडा आनन्द आवेगा-हाँ सुन्दरी ! (और मद्य पीता है) दामिनी-कैसी विडम्बना है ! हे भगवान, मेरा उद्धार करो ! अश्वसेन -सुन्दरी, कामकन्दले ! तनिक इस सघन घन की ओर देखो। इसके कलेजे मे छिपी हुई बिजली को देखो। इन सबको न देखो, तो इस उद्दण्ड वृक्ष से लिपटी हुई लता को ही देखो। (हाथ पकड़ता है) दामिनी-हटो अश्वमेन, मेरा मानस कलुषित हो चुका है, पर अभी तक मेरा शरीर पवित्र है। उसे दूषित न होने दूंगी-चाहे प्राण चले जाएँ। दुराचारी छोड़ दे ! ईश्वर से डर ! अश्वसेन-(कुछ संभलकर) सुन्दरी, मैं मनुष्य हूँ। मेरी समझ में यही मनुष्यता है कि रमणीय प्रलोभन और भयानक सौन्दर्य के सामने घुटने टेक दूं । तुम भय और आश्चर्य से पाप का नाम लेकर मुझे डरा न सकोगी। मैं पाप और पुण्य की सीमा पर खड़ा हूँ अब मान जाओ। दामिनी-बचाओ ! वचाओ !! [सवेग मणिमाला का प्रवेश]] अश्वसेन--तुम कौन हो? मणिमाला-भइया, तुम एक दुर्बल रमणी पर अत्याचार करोगे? मुझे स्वप्न में भी इसका अनुमान न था। मेरे पिता जी की मन्तान होकर तुम ऐसी नीचता करोगे ! हाय ! इस नाग-कुल में ऐसे व्यक्ति उत्पन्न हुए, तभी तो उसकी यह दशा है ! अश्वसेन-मणिमाला ! - ३२० : प्रसाद वाङ्मय