पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सन्तोष -इच्छा तो होती है, पर लौटकर न आने के संदेह से साहस नहीं होता। ये हरे-भरे खेत, छोटी पहाड़ियों से ढुलकाते--मचलते हुए झरने, फूलों से लदे वृक्षों की पंक्ति, भोली गउओं और उनके प्यारे बच्चों के झुण्ड; इस बीहड़, पागल और कुछ न समझने वाले उन्मत्त समुद्र में कहाँ मिलेंगे । ऐसी धवल धूप, ऐसी तारों से जगमगाती रात वहां होगी? विनोद-मुझे तो विश्वास है कि कदापि न होगी। सन्तोष-तब जाने दो, उसकी चर्चा व्यर्थ है। क्यों जी, आज उपासना में वह कामना दिखाई पड़ी। विनोद 1-क्या तुम उससे ब्याह किया चाहते हो? सन्तोष - उसकी बातें, उसकी भाव-भंगिमा कुछ ममझ मे नही आती। मै तो उससे अलग रहना चाहता हूँ। विनोद-मेरी गृहस्थी तो व्याह के बिना अधूरी जान पड़ती । मैं तो लीला की सरलता पर प्रसन्न हूँ। सन्तोष-तुम जानो। अच्छा होता यदि तुम उसी से ब्याह कर लेते ? दिगेद-तुम-तुम ! सन्तोष-मैं सन्तुष्ट हूं-मुझे ब्याह की आवश्यकता नही । विनोद-अच्छी बात है। चलो, अब घर चलें। [दोनों जाते हैं, कामना आती है] कामना-हाँ, तुम हिचकते हो, और मै तुमसे घृणा (जीभ दबाती है)-है यह क्या ? इसके क्या अर्थ ? मै क्या इस देश की नही हूँ। क्या मुझमे कोई दूसरी शक्ति है, जो मुझे इनसे भिन्न रखना चाहती है। कुछ मै ही नही, ये लोग भी तो मुझको इसी दृष्टि से देखते है । [लीला का प्रवेश] लीला-बहन, क्या अभी घर न चलोगी? कामना-तू भी आ गयी ? लीला-क्यों न आती? कामना-आती, पर मुझ से यह प्रश्न क्यो करती है लीला-बहन, तू कैसी होती जा रही है। तेरा चरखा चुपचाप मन मारे बैठा है। तेरी कलसी खाली पड़ी है। तेरा बुना हुआ कपड़ा अधूरा पड़ा है। ? तेरी- कामना-मेरा कुछ नहीं है, तू जा। मै चुप रहना चाहती हूँ, मेरा हृदय रिक्त है। मै अपूर्ण हूँ। कामना: ३५९