पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३८९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सन्तोष मुझसे डरता है तो मैं भी उससे सब को डराऊंगी-विनोद को मै बुला आयी हूँ। वह तेरा परम अनुरक्त है। [लीला अवाक होकर देखती है, फूलों के मुकुट से सजा हुआ विनोद आता है] कामना-स्वागत! लीला-विराजिये। [सब बैठते हैं कामना फलों के हार दोनों को पहनाती और पात्र लेकर दोनों को एक में पिलाती है, पीछे खड़ी होकर दोनों के सिर पर हाथ रखती है, तीनों के मुख पर तीव आलोक] कामना-अखण्ड मिलन हो ! विनोद--उपासना गृह में भी तो चलना होगा। लीला-यह तो नियम है। कामना--थोड़ी और पी लो, तो चले। वहाँ सब लोग एकत्र रहेंगे। परन्तु देखो, जो मं हूं, वहाँ वही करना। लीला विनोद }-वही होगा। [दोनों पात्र खाली करके जाते हैं] काममा--मेरे भीतर का बांकपन सीधा हो गया है। मेरा गर्व उसके पैरों में लोटने लगा। वह अतिथि होकर आया, आज स्वामी है। व्योम-शैल से गिरती हुई चन्द्रिका की धारा आकाश और पाताल एक कर रही है। आनन्द का स्रोत बहने लगा है। इस प्रपात के स्वच्छ कणों वृहासे के समान सृष्टि में अन्धकार-मिश्रित आलोक फैल गया है। अन्तःकरण के प्रत्येक कोने से असन्तोष-पूर्ण नृप्ति की स्वीकार- सूचनायें मिल रही हैं। विलास | तुम्हारे दर्शन ने सुख भोगने के नये-नये आविष्कारों से मस्तिष्क भर दिया है। क्लान्ति और श्रान्ति मिलने के लिए जैसे सकल इन्द्रियाँ परिश्रम करने लगी हैं-विलास ! (गाती है) घिरे सघन घन नींद न आयी, निर्दय भी न अभी आया ! चपला ने इस अन्धकार में, क्यों आलोक न दिखलाया ? बरस चुकी रस-बूंद सरस हो फिर भी यह मन कुम्हलाया ? उमड़ चले आँखों के झरने, हृदय । शीतल हो पाया ! -चलू उपासना-गृह में-(जाती है) दूश्या न्त र - कामना : ३६९