पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

प्रायश्चित्त प्रथम दृश्य [समय-रात्रि : स्थान-कगार, नदी का किनारा-रण-भूमि] [दो विद्याधरियों का प्रवेश] पहली-"क्योंरी विहारिणी | आज कहाँ घूमने आयी है। यह तो बडा भयानक दृश्य है । यह कोई रण-भूमि है क्या ?" दूसरी-"विलासिनी ! तुझे तो अपने गधमादन-विलास से छुट्टी ही नही । क्या मालूम कि संसार मे क्या हो रहा है ?" पहली-"मुझे तो सचमुच इधर का हाल कुछ भी नही मालूम । हारी सखी ! भला पर संग हुआ है ?" दूसरी-"हा ! तुझमे क्या कहे, और तुझे इतना भी नही ज्ञात है कि हिन्दू- साम्राज्य-सूर्य इसी रण-भूमि-अस्ताचल मे डूवा है। चौहान-कुल-भूषण पृथ्वीराज का इसी युद्ध मे सर्वस्वांत हुआ ?" पहली-"विहारिणी ! भला कह तो, यह वीर कमे गिराया गया ? क्या उमके हाथ मे लोहे की कमान नही थी? क्या उमका साहस क्षीण हो गया था ? आश्चर्य ! जिस पृथ्वीराज के भुजबल में अनेक बार यवनसमूह पराजित हुआ है, उसका यह परिणाम ?" दूसरी-"विलामिनी ! यदि भाई का शत्रु भाई न हो -यदि शैलवासिनी सरिता ही शृंग को न तोडे -तो भला दूसरा क्या कर सकता है।" पहली-'क्या यह किसी नीच भारतवासी का ही काम है ?" दूसरी-"हाँ, पृथ्वीराज के श्वसुर जयचंद का।" पहली -"भला सखी ! मैने तो सुना था कि जयचद ने अपनी कन्या का पाणिग्रहण उनके साथ करा दिया और फिर कोई वैमनस्य न रहा, तब ऐसा क्यों हुआ?" दूसरी-"प्रतिहिसा, आत्मसम्मान और दुर्दमनीय वृत्ति के वशीभूत होकर यह सब हुआ है। स्वयं लड नही सकता था, ल, के लिए साधन चाहिय । और फिर किसके साथ ! जामाता से प्रकाश्य कैसे हो, इसलिये यवन बुलाये गये और आर्यसाम्राज्य का नाश किया गया।" प्रायश्चित्त : २३