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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४०

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पहली-"सखी ! हिंसा कैसी बुरी वस्तु है। देख, इसने कैसा भयंकर कार्य किया।" दूसरी-"सीधी ! इस रही-सही "प्रतिहिंसा" को भी भारतवासियों के लिए ईश्वर की दया समझ। जिस दिन इसका लोप होगा, उस दिन से तो इनके भाग्य में दासत्व करना लिखा ही है।" पहली-"विहारिणी ! तेरी बातें तो सब बेसिर-पैर की होती हैं। भला, प्रतिहिंसा भी कोई अच्छी वस्तु है, जिस पर तू इतना कह गई है।" दूसरी-"विलासिनी ! जिस दिन से कोई जाति, अपने आत्मगौरव का अपने शत्रु से बदला लेना भूल जाती है, उसी दिन उसका मरण होता है। सब, जब अपने व्यक्तिगत सम्मान की रक्षा करते है, तव उस समष्टि रूपी जाति या समाज की रक्षा स्वयं हो जाती है, और नही तो अपमान सहते-सहते उसकी आदत ही वैसी पड़ जाती है। फिर शक्ति का उपयोग नही हो सकता, और शक्ति के उपयोग न होने से वह भी धीरे-धीरे उत्मन्न हो जाती है। इसलिए मैं कहती हूं कि यह थोड़ी बची हुई प्रतिहिंसा यदि जागृत रही, तो फिर भी मनुष्य अपने को समझ सकता है।" पहली-"तू तो ज्ञान छाँटने लगती है और ऐसी रूखी बन जाती है कि दया का लेश भी छू नहीं जाता। देख, वह प्यास से एक आहत तड़प रहा है । चल, उसे नदी का जल पिला कर तृप्त करें।" दूसरो-"ठहर, देख, यह कौन है । अरे, यह तो दुष्ट जयचंद ही है । सखी, तू भी अन्तरिक्ष में हो जा और मैं भी अन्तरिक्ष होकर इस चाण्डाल से कुछ प्रायश्चित कराना चाहती हूँ। उसी ओर चलें।" (प्रस्थान ) - द्वितीय दृश्य [स्थान-रणभूमि का ही एक हिस्सा । श्मशान-बुझती हुई चिता, अन्धकार] [जयचंद का प्रवेश] जयचंद -- "ह ह ह ह ह, मैं आज पिशाचों की क्रीड़ा देखने आया हूँ। और इस बुझती हुई पृथ्वीराज की चिता को देख कर अपनी हिसा की आग भी बुझाना चाहता हूँ (व्हर कर) उमके मस्तक को तो नही पा सकता, पर उसकी राख को मैं अवश्य अपने पैरों से कुचलूंगा।" (आकाश से शब्द)-"हारे हाँ, पृथ्वीराज के साथ अपनी त्रैलोक्यसुन्दरी, कन्या की राख को भी तू कुचलेगा।" जयचंद-(भीत होकर-साहस के साथ) नही, मैं तो अपने शत्रु की राख को बिखेरना चाहता हूँ।" (आकाश से)-"भला, यह तो बता, तूने अपनी कन्या को कैसा सुख दिया । २४: प्रसाद वाङ्मय