पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/३९४

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. लीला-(सहसा प्रवेश करके) सब लोग आ रहे हैं। [विलास सब बन्द कर लेता है, लीला की ओर क्रोध से देखता है, लीला संकुचित हो जाती है] विलास-जब कह दिया गया कि तुम्हें भी मिलेगा, तब इतनी उतावली क्यों है ? [विनोद भी आ जाता है] कामना-विनोद और लीला हमारे अभिन्न हैं प्रिय विलास ! विलास-ईश्वर का यह ऐश्वर्य है, उसका अंग है। जब उसकी इच्छा होगी, तभी मिलेगा । जल्दी का काम नही । विनोद ! तुम्हे भी इसकी विनोद-मैंने भी बहुत-सी रेत इकट्ठी की है, परन्तु बना न सका- मुझे नही, लीला को चाहिये। विलास-(आश्चर्य और क्रोध प्रकट करते हुये) अच्छा, प्रतिज्ञा करो कि कामना जो कहेगी, यही तुम लोग करोगे, आज का रहस्य किसी से न कहोगे। विनोद-1 लीला- हम दोनों दास है। किसी से न कहेगे। कामना-क्या कहा ! दोनों -दास है । आप के दास है । कामना-नही, नही, तुम इतने दीन होकर इस ज्वाला की भीख मत लो। इस द्वीप के निवासी...॥ विलास-ठहरो कामना, (विनोद से) तो तुम अपनी बात पर दृढ़ हो ? झूठ नही बोलते? लीला-झूठ क्या? विलास-यही कि जो कहते हो, उसे फिर न कर सको। कामना-ऐसा तो हम लोग कभी नही करते । क्यों विनोद ! विलास-मैं तुमसे नही पूछ रहा हूँ कामना । विनोद-हां-हां, वही होगा। [विलास एक छोटा-सा हार निकालकर लीला को पहनाता है। कामना क्षोभ से देखती है, विलास पर्दा खींचकर खड़ा हुआ मुसकराता है। सब लोग आ जाते हैं, कामना सब का स्वागत करती है, युवक और युवतियों का झुण्ड बैठता हैं] विलास -आज आप लोग मेरे अतिथि हैं, यदि कोई अपराध हो तो क्षमा कीजियेगा। एक युवक-अतिथि क्या ? ३७४: प्रसाद वाङ्मय