पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४०५

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? दासता, द्वन्द्व और दुःखों के अलातचक्र में दग्ध हो रहे हो! आनन्द के लिए सब किया; वह कहाँ ! जब मन मे आनन्द नही, तब कही नही । विलास-(देखकर) कौन ? सन्तोष ! तुम क्या जानोगे? भावुकता और कल्पना ही मनुष्य को कला की और प्रेरित करती है इसी में उसके कल्याण का रहस्य है, पूर्णता है। सन्तोष--विलास ! तुम्हारे असंख्य साधन है। तब भी कहाँ तक ? संसार की अनादि काल से की गयी कल्पनाओं ने जगन को जटिल बना दिया, भावुकता गले का हार हो गयी, कितनी कविताओ के पुराने पत्र पतझड के पवन में कहाँ-के-कहाँ उड गये ! तिमपर भी संसार मे असंन्य मूक कविताये हुई । चन्द्र-सूर्य की किरणों की तूलिका से अनन्त के आकाश के उज्ज्वल पट पर बहुत-से नेत्रों ने दीप्तिमान रेखाचित्र बनाये; परन्तु उनका चिह्न भी नहीं है। जिनके कोमल कण्ठ पर गला दे देना साधारण बात थी, उन्होने तीसरे मप्तक की कितनी गर्मभेदी तानें लगायीं, किन्तु वे सर्वग्रासी आकाश के खोखले मे विलीन हो गयी। [सन्तोष जाता है, कामना का प्रवेश] विलास--(विलास को देखकर, स्वगत) जैसे खुले हुए ऊंचे कदम्ब पर वर्षा के यौवन का एक सुनील मेघखण्ड छाया किये हो। कैसा मोहन रूप हे (प्रकट) क्यो विलास ! यहाँ क्या कर रहे हो विलास--विचार कर रहा हूँ। कामना-क्या? विलास-जिस इच्छा के बीज का रोपण करता हूँ, हमारी महत्वाकांक्षा उसी के अंकुरो को सुरक्षित रखने के लिये---सूर्य के ताप से बचाने के लिये--अनन्त आकाश को मेघो से ढंक लेती है । कामना--तब तो बड़ी अच्छी बात है ! विलास--परन्तु सन्देह है कि कही मधु-वर्षा के बदले करकापात न हो। कामना-मीठी भावनाये करो। प्रिय विलाम, मधुर कल्पनाये करो। सन्देह क्यों? विलास-सामने देखो--वह समुद्र का यौवन, जलराशि का वैभव, परन्तु उसमे नीची-ऊंची लहरें है। कामना--नही देखते हो, सीपी अपने चमकीले दांतो से हंस रही है। चलो, उपासना-गृह चलें। विलास-तुम चलो, अभी आता हूँ। [कामना जाती है] विलास-(स्वगत) --कामना एक सुन्दर रानी होने के योग्य प्रभावशालिनी 2 २५ कामना : ३८५