पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४३

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जयचंद-"भ्रम नहीं, मंत्रिवर, भ्रम नहीं होता है। मैंने प्रायश्चित्त करने की प्रतिज्ञा की है।" मंत्री-"कैसा प्रायश्चित्त महाराज ?" जयचंद-"पाप का । मन्त्री, जिसे मैंने किया है । देखो मंत्रिवर, एक पुच्छ- मर्दिता सिंहिनी-मूर्ति प्रायश्चित्त करने को अपनी उंगली उठा कर मुझे चिताती है। देखो, वह.."। मंत्री-"महाराज ! आप कैसी उन्मत्त की-सी बातें कर हैं ? यह समय धैर्य्य का है। आपको एक प्रबल शत्रु से सामना करना है, उसके सामने क्या आप इसी तरह से अपनी रक्षा करेंगे?" जयचंद--"क्या कहा, शत्रु कहाँ है । सभी तो हैं। तुम भी हमारे शत्रु हो । क्या तुम नही हो ? मंसार ही शत्रु है, उससे क्या करें । बोलो, कहो कोन मित्र है ?" मंत्री-"महाराज मावधान हूजिये, बड़ा विषम समय है।" जयचंद -"हाँ मन्त्री, क्या कहा विप? हाँ, यह भी तो प्रायश्चित्त का एक उपकरण है।" मंत्रो-"हा शोक !" (जाता है) [राजा जयचंद स्तब्ध बैठ जाता है] [पट-परिवर्तन] चतुर्थ दृश्य [दिल्ली दरबार, मुहम्मद गोरी सिंहासनासीन] दरबारी-“शाहंशाह को तख्ते हिंदोस्तान मुबारक हो।" मुहम्मदगोरी-“बहादुर सर्दारों ! दीन इस्लाम को तख्ते हिंदोस्तान मुबारक दरबारी-"आमी, आमीं।" मुहम्मदगोरी-"बहादुर शफकत ! आज सचमुच हिन्दोस्तान हलाली झंडे के नीचे आ गया। और यह सब तो एक बात है, दर असल खुदाये पाक को अपने पाक मजहब को जीनत देना मंजूर है। नही तो भला इन फौलादी देवजादे हिंदुओं पर फतह पाना क्या मुमकिन था ?" दरबारी-"कभी नहीं, हरगिज़ नहीं।" शफकत-"लेकिन हुजूर, रायपिथौरा भी एक ही देवसूरत और बहादुर शख्स था। बेहोश होने पर ही कब्जे में आया।" एक दरबारी -"अजी, क्या उस मूजी की तारीफ करते हो।" 1 प्रायश्चित्त : २७