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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४४

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-"मगर हुजूर कम्बख्त, मुहम्मदगोरी-"नही अनवर ! तुम भूल करते हो। हकीकत में वह शख्स काबिले तारीफ था। और मुसलमानों को भी वैसा ही मजहब का पक्का होना चाहिये। देखो, कितनी बेरहमी से उसका कत्ल किया गया, मगर, उस काफिर ने पाक दीन इस्लाम को नही कुबूल किया । वाकई वहादुर था।" दरबारी-(सर झुकाकर) "बजा इर्शाद ।" शफकत- काफिर जयचंद भी खूब ही छका। उसने समझ रक्खा था कि 'तख्ते देहली हमी को मिलेगा।' आपके जवाब ने तो उस पर कोह ढहा दिया होगा । चकनाचूर कर दिया होगा।" मुहम्मदगोरी-(हंसकर) “एक ही वेवकूफ है। पूरा उल्लू बना । (कुछ सोचकर) मगर शफकत, इस दुश्मन को भी लगे हाथ न कमजोर करेगे तो यह भारी नुकसान पहुंचावेगा।" दरबारो-(खड़े होकर तलवार निकालकर) “शाहंशाहे आलम ! जंग ! फतेह ।" मुहम्मदगोरी-"बहादुर सरदारो ! बैठो। आज फतेह की खुशी मनाओ। कल इसका बहुत जल्द इन्तेज़ाम होगा।" (इनाम देता है) [पटाक्षेप] पंचम दृश्य [दुर्ग का एक भाग] [जयचंद और मन्त्री] जयचंद-“मन्त्री ! उन दुष्ट राजाओ ने क्या उत्तर दिया ? मत्री -"महाराज ! किमी ने कहा कि - 'क्या महाराज फिर कोई राजसूय यज्ञ करेंगे, जो बुलावा हो रहा है ? अच्छा उपहार की सामग्री एकत्र करके आता हूं।" किसी ने कहा- मैंने महाराज की आज्ञा से मेना घटा दी है। जब सब सेना एकत्र होगी, तब आऊँगा।' किसी ने उत्तर दिया कि-'जहाँ तक हो सकेगा शीघ्र भाऊंगा' ।" जयचंद-"कहो, कहो, सत्य और शीघ्र कहो।" मंत्री-"महाराज ! किसी-किसी ने यह भी कहा है कि हम देशद्रोही का साथ न मे। यदि यवन लोग आपसे चढ़ आते, तो अवश्य हम उनकी सहायता करते, पर जब उन्होंने स्वयं उसे बुलाया है, तब हमलोग कुछ नही कर सकते।" जयचंद-"हाँ ! मंत्री! जयचंद के अधीन राजाओं और सरदारों को २८ प्रसाद बाङ्मय