पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४३६

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विलास-कुछ नहीं रानी, इन्हें प्राणदण्ड ! लालसा-इनसे पूछने की क्या आवश्यकता है ? हम लोगों का कहना ही क्या इसके लिए यथेष्ट प्रमाण नहीं है ? सब सैनिक-हाँ, हाँ सेनापति का अनुरोध अवश्य माना जाय । कामना-तब मुझे कुछ कहना नहीं है। विलास-(सैनिकों से) दोनों को इसी वृक्ष से बांध दो, और तीर मारो। स्त्री-क्यों शत्रु-सेनापति ! स्त्री पर अत्याचार न कर पाने पर उसका प्राण लेना ही न्याय है ? परन्तु प्राण तुम ले सकते हो, मेरा अमूल्य धन नहीं। शत्रु-सैनिक सुन्दरी लालसा, तुम स्त्री हो या पिशाचिनी ? लालसा-जा, जा, मर। [दोनों को बांधकर तीर मारे जाते हैं, कई प्रार्थियों का प्रवेश] सैनिक-रानी, द्वेष ने मुझे सोते में छुरा मारकर घायल किया है, न्याय कीजिये। दूसरा-प्रमदा मेरे आभूषणों की पेटी लेकर दुर्वृत्त के साथ भाग गयी। उससे मेरे आभूषण दिला दिये जाय । तीसरा-रानी, मैं बड़ा दुखी हूं। मेरा मदिरा का पात्र किसी ने चुरा लिया। मैं बड़े कष्ट से गत बिताता हूँ। चौथा- नवीना मेरी विश्वासपात्र प्रेमिका बनकर गहने के लोभ से स्वर्णभूति के साथ जाने के लिए तैयार है उसे समझा दिया जाय, अन्यथा मै आत्महत्या करूंगा। पाँचवा-रानी, मेरा लड़का सब धन बेच कर मदिरा पी जाता है, उससे मेरा सम्बन्ध छुडा दिया जाय। एक स्त्रो-मुझे विश्वास देकर, कौमार-भंग करके अब यह मद्यप मुझसे ब्याह नहीं करता। एक दूत--(प्रवेश करके) जिम नवीन नगर की प्रतिष्ठा कुछ लोगों ने की थी, उममें बहुत से अपराधी जाकर छिपे थे, वह नगर भूकम्प में चला गया। रानी-ठहरो। मुझे पागल न बनाओ। अपराधों की आंधी ! चारों ओर कुकर्म ! ओह ! [आठ वर्ष का एक बालक दौड़ा आता और दण्डितों के शवों पर गिर पड़ता है, कामना उठकर खड़ी हो जाती है] कामना-बालक, तुम कौन हो ? बालक-(रोता हुआ) मेरी माँ मेरे पिता- कामना-क्यों विलास, यह क्या हुआ। लालसा-ठीक हुआ। ४१६ : प्रसाद वाङ्मय