पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४६

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भार है ? भला सब तुम्हारे उठाये उठेगा ? मैं तो प्रायश्चित्त करने जाता हूँ, तुम्हारा तो कोई पापकर्म प्रकट नहीं है। फिर तुम क्यों चलते हो ? जाओ, जल्दी अपने देश के कार्य में, अपने हाथों को लगाओ !" सैनप-"महाराज आप !" जयचंद-"बोलो मत, मैं एक बार फिर उसी गजेंद्र पर चढ़ कर प्रायश्चित्त करूंगा, जिस मदांध पर चढ़ कर मैं भी मदांध हो गया था। हां, सैनप, एक बात कहना मैं भूल गया था। कन्नौज निवासियों से कह देना कि तुम्हारे पापी राजा ने, जिनकी तुम लोगों ने बहुत-सी आज्ञाएँ मानी हैं, एक अंतिम प्रार्थना यह की है कि यदि हो सके, तो शहाबुद्दीन का वध करके उसकी रक्तधारा से दो एक अंजुली, जयचंद के नाम पर देना क्योंकि पापियों को नरक में यही पीने को मिलता है। बस, जाओ।" [सैनप का प्रस्थान, जयचंद का गजारोहण और गंगा में धंसना] जयचंद -बस महाशय ठहरो ! (आकाश की ओर देख कर) देवि ! एक तो मैं नहीं कर सका; पर दूसरा तो मेरे वश में है, वह प्रायश्चित्त करता हूँ। देश- द्रोह के लिए आत्मवध । हाँ फिर, इससे बढ़कर दूसरा स्थान कहाँ है ? पतितपावनी, प्रणाम (कूद पड़ता है) [पटाक्षेप] ३०:प्रसाद वाङ्मय