पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४५

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ऐसा कहने का हौसला हो गया? चलो अच्छा हुआ। तुमने रक्षा का क्या उपाप सोचा है ?" मंत्री-"महाराज ! चौहान और राठौर के युद्ध में साहसी, शूर और राजभक्त मेना कट चुकी है, यह तो महाराज को मालूम ही होगा। जो कुछ है, तैयार हो [चर का प्रवेश] चर-"महाराज की जय हो ! मंत्री महाशय ! अभिवादन करता हूँ।" मंत्री-"कुशल तो है ? कहो क्या समाचार है ?" चर-"महाराज ! यवनों की एक बड़ी सेना, इसी ओर चुप-चाप बढ़ती चली आ रही है । संभव है कि पहर-दो-पहर में वह कन्नौज तक पहुंच जाय।" जयचंद-"मंत्री ! क्या होगा ?" मंत्री - "महाराज ! आप वीर हैं, युद्ध के लिए प्रस्तुत होइए।" जयचंद-(सोचकर) "नही मंत्री ! इन मेरी पाप-भूषित भुजाओं में अब वह बल नहीं है कि युद्ध करूँ । लो, शीघ्र राजकुमार को बुलाओ। यह राज्य उनका है, अब वही इसकी रक्षा करे। मुझसे कोई संसर्ग नही है।" मंत्री-"महाराज ! वह नये राजकुमार है, भला ऐसे संकट में उनसे रक्षा होगी?" जयचंद-"भला मंत्री ! तुम नही जानते कि मुझे प्रायश्चित्त करना है । (आकाश की ओर) देखो, देखो, वह कौन मूर्ति है ! हाँ हाँ, देवि ! क्रुद्ध न हो, मैं अवश्य प्रायश्चित्त करूंगा। लो मै जाता हूँ (मन्त्री से) मंत्री ! तुम जानो, राजकुमार जाने । कन्नौज राज्य से मेरा कुछ सम्बन्ध नही । मैं प्रायश्चित्त करने जाता हूँ।" [प्रस्थान, पटाक्षेप छठा दृश्य [स्थान-गंगा तट] [जयचंद और साथी] जयचंद--."सैनप ! तुम मेरे साथ क्यों आ रहे हो? क्या यहाँ भी कोई सेना है ? जाओ, यदि तुम्हारे किये कुछ हो सके, तो कन्नौज की रक्षा करो। और नहीं तो मरने ही की ठीक प्रतिज्ञा हो, तो चलो। गंगा-तट से बढ़कर कौन-सी भूमि है !" सैनप--"महाराज, वीरों के लिए रण-गंगा गे बढ़ कर दूसरा पुण्यतीर्थ नहीं है । परन्तु करूं वया, मेरे ऊपर आपकी रक्षा का भार है।" जयचद -"ह ह ह ह, पर यह भी जानते हो कि मेरे ऊपर कितने पापों का प्रायश्चित्त : २९