पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४६०

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प्रज्ज्वलित कठोर नियति का -नील आवरण उठाकर झांकने वाला। उसकी आँखों में अभिचार का संकेत है; मुस्कुराहट मे विनाश की सूचना है, आंधियों से खेलता है, बातें करता हैं- बिजलियों से आलिंगन ! प्रपंचबुद्धि-(सहसा प्रवेश करते हुए) स्मरण है भाद्र की अमावास्या ? [भटार्क और अनन्तदेवी सहमकर हाथ जोड़ते हैं] अनन्तदेवी-स्मरण है, भिक्षु शिरोमणे ! उसे मैं भूल सकती हूँ? प्रपंचबुद्धि - कोन, महाबलाधिकृत ! हं-ह-ह-हें, तुम लोग सद्धर्म के अभिशाप की लीला देखोगे, है आँखों में इतना बल ? क्यों समझ लिया था कि इन मुण्डित- मस्तक जीर्ण कलेवर भिक्षु कंकालों मे क्या धरा है ? देखो, शत्र-चिता में नृत्य करती हुई तारा का ताण्डव नृत्य, शून्य ! सर्वनाशकारिणी प्रकृति की मुण्डमालाओं की कन्दुक-क्रीड़ा ! अश्वमेध हो चुके, उनके फलस्वरूप महानरमेध का उपसंहार भी देखो। (तीक्ष्ण दृष्टि से भटार्क को देखते हुए) है तुझमे-तू करेगा ? अच्छा महादेवी ! अमावास्या के पहले पहर मे, जब नील गगन से भयानक और उज्ज्वल उल्कापात होगा, महाशून्य की ओर देखना । जाता हूं। सावधान ! (प्रस्थान) भटार्क-महादेवी ! यह भूकम्प के समान हृदय को हिला देने वाला कौन व्यक्ति है ? ओह, मेरा तो सिर घूम रहा है ! अनन्तदेवी-यही तो भिक्षु प्रपञ्चबुद्धि है ! भटार्क -तब मुझे विश्वास हुआ। यह क्रूर-कठोर नर-पिणाच मेरी सहायता करेगा। मैं उस दिन के लिये प्रस्तुत हूँ। अनन्तदेवी -तब प्रतिश्रुत होते हो? भटार्क-दास सदैव अनुचर रहेगा। अनन्तदेवी -अच्छा, तुम इसी गुप्तद्वार से जाओ। देखू, अभी कादम्ब की मोहनिद्रा से सम्राट् जगे कि नहीं ! जया--(प्रवेश करके) परम भट्टारक अंगड़ाइयाँ ले रहे है । स्वामिनी शीघ्र चलिये । (प्रस्थान) भटार्क-तो महादेवी, आज्ञा हो। अनन्तदेवी-(देखती हुई) भटार्क ! जाने को कहूँ ? इस शत्रुपुरी में मैं असहाय अबला इतना--आह ! (आँसू पोंछती है) भटार्क-धर्य रखिये । इस सेवक के बाहुबल पर विश्वास कीजिये ! अनन्तदेवी-तो भटार्क, जाओ। जया-(सहसा प्रवेश करके) चलिये शीघ्र । [दोनों जाती हैं] 1 ४४०: प्रसाद वाङ्मय