पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/४६१

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भटार्क-एक दुर्भेद्य नारी-हृदय में विश्व-प्रहेलिका का रहस्य-बीज है । ओह कितनी साहसशीला स्त्री है ? देखू, गुप्त-साम्राज्य के भाग्य की कुंजी यह किधर घुमाती है। परन्तु इसकी आँखों में कामपिपासा के संकेत अभी उबल रहे हैं । अतृप्ति की चंचल प्रवंचना कपोलों पर रक्त होकर क्रीड़ा कर रही है। हृदय में श्वासों की गरमी विलास का सन्देश वहन कर रही है। परन्तु "अच्छा चलू, यह विचार करने का स्थान नहीं है । [गुप्त द्वार से जाता है] दृश्या न्त र पंचम दृश्य [अन्तःपुर का द्वार] शर्वनाग-(टहलता हुआ) कौन-सी वस्तु देखी ? किस सौन्दर्य पर मन रीझा? कुछ नही, सदैव इसी सुन्दरी खड्ग-लता की प्रभा पर मैं मुग्ध रहा। मैं नहीं जानता कि और भी कुछ सुन्दर है। वह मेरी स्त्री--जिसके अभावों का कोश खाली ही जिसकी भर्त्सनाओं का भण्डार अक्षय है, उससे मेरी अन्तरात्मा काप उठती है । आज मेरा पहरा है। घर से जान छूटी, परन्तु रात बड़ी भयानक है। चलूं अपने स्थान पर बैठू । सुनता हूं कि परम भट्टारक की अवस्था अत्यन्त शोचनीय है-जाने भगवान्"" भटार्क-(प्रवेश करते हुए) कौन ? शर्वनाग-नायक शर्वनाग । भटार्क-कितने सैनिक हैं ? सर्वनाग-पूरा एक गुल्म । भटार्क--अन्तःपुर से कोई आज्ञा मिली है ? शर्वनाग--नही। भटार्क-तुमको मेरे साथ चलना होगा। शर्वनाग--मैं प्रस्तुत हुँ, कहाँ चलूं ? भटार्क-महादेवी के द्वार पर । शर्वनाग-वहाँ मेरा क्या कर्तव्य होगा? भटार्क--कोई न तो भीतर जाने पाये और न भीतर से बाहर आने पाये। शर्वनाग--(चौंककर) इसका तात्पर्य ? भटार्क-(गम्भीरता से) तुमको महाबलाधिकृत की आज्ञा पालन करनी चाहिये। शर्वनाग-तब भी, क्या स्वयं महादेवी पर नियन्त्रण रखना होगा ? स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ४१