पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५१

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कल्याणी परिणय सुखद होने लगा। पहला दृश्य [सिंधुतट-कानन । चाणक्य टहलता हुआ दिखाई देता है] चाणक्य-वाह ! प्रभात का समय भी कैसा सुंदर होता है, देखो। (पद्य) अंधकार हट रहा जगत जागृत हुआ। रजनी का भी स्तब्ध भाव अपमृत हुआ। नीलाकाश प्रशांत स्वच्छ होने लगा। दक्षिण-पवन-स्पर्श क्लांत निशा जो जगी रात भर मोद में । चली लेटने आप नींद की गोद में। ऊषा का पट ओढ़ लिया अति चाव से । अंतरिक्ष में सोने को शुचि भाव से ॥ पर जीवों को जगा दिया कलनाद से । जो तंद्रा-सुख भोग रहे आह्लाद से । (कुछ ठहर कर) पर मुझे भी दिन-रात गज-काज के झगड़ों ने दूसरा ही बना डाला। चाणक्य ! तेरी वह शांति कहाँ गयी? इस क्रूर कार्य में क्यों तूने हाथ डाला? हाय, सब कहते है कि चाणक्य बड़ा ही दुष्ट है पर उन्हे यह ध्यान ही नहीं कि यह कार्य ही ऐसा है ! मंसार ! संसार !! तेरी लीला अपरंपार है। मनुष्य को ध्यान भी नहीं रहता कि वह क्या से क्या हो गया । अनिर्वचनीय शक्ति नूने- अस्पष्ट चित्र दिखला दिया। भ्रममय अनुसंधान हमें सिखला दिया ।। नहीं तो कहाँ मैं, और कहाँ यह दुस्तर कुहेलिका-समुद्र संसार ! (स्मरण करके गद्गद कण्ठ से आँखें बन्द किए हुए) छाया-सा आह ! दूर छोड़ कर देश किस जगह आ गया। यात्री का पद कहो कहाँ से पा गया ? कल्याणी परिणय : ३५