पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५२७

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हृदय ! तू है बना अलनिधि लहरियां खेलती तुझमें, मिला अब कौन सा नवरत्न जो पहले न था तुझमें ! (प्रस्थान) [वेश बदले हुए स्कंदगुप्त का प्रवेश] स्कंदगुप्त -जननी ! तुम्हारी पवित्र स्मृति को प्रणाम । (समाधि के समीप घुटने टेककर फूल चढ़ाते हुए) मां अंतिम बार आशीर्वाद नहीं मिला, इसी से यह कष्ट-यह अपमान ! माँ तुम्हारी गोद में पलकर भी तुम्हारी सेवा न कर सका--यह अपराध क्षमा करो। [वेवसेना का प्रवेश] देवसेना - (पहचानती हुई) कौन ? अरे-सम्राट की जय हो । स्कंदगुप्त-देवसेना । देवसेना-हाँ राजाधिराज । धन्य भाग्य, आज दर्शन हुए। स्कंदगुप्त-देवसेना ! बड़ी-बड़ी कामनाये थी। देवसेना-सम्राट स्कंदगुप्त-क्या तुमने यहां कोई कुटी बना ली है ? दवसेना-हाँ यहीं गाकर भीख मांगती हूँ, और आर्य पर्णदत्त के साथ रहती हुई महादेवी की समाधि परिष्कृत करती हूँ। स्कंदगुप्त-मालवेश-कुमारी देवसेना । तुम और यह कर्म । समय जो चाहे करा ले ! कभी हमने भी तुम्हें अपने काम का बनाया था । देवसेना यह सब मेरा प्रायश्चित्त है। आज मैं बंधुवर्मा के आत्मा को क्या उत्तर दूंगा? जिसने निस्स्वार्थ भाव से सब कुछ मेरे चरणों में अर्पित कर दिया था, उससे कैसे उऋण होऊँगा? मैं यह सब देखता हूँ--और, जीता हूं देवसेना--मैं अपने लिए ही नहीं मांगती देव ! आर्य पर्णदत्त ने साम्राज्य के बिखरे हुए सब रत्न एकत्र किये हैं, वे सब निरवलंत्र है | किसी के पास टूटी हुई तलवार ही वची है, तो किसी के जीर्ण वस्त्र-खंड ! उन मब की सेवा इसी आश्रम में होती है। स्कंदगुप्त-वृद्ध पर्णदत्त-- --तात पर्णदत्त ' तुम्हारी यह दशा ? जिसके लोहे से आग बरसती थी, वह जंगल की लकड़ियां बटोर कर आग सुलगाता है। देवसेना ! अब इसका कोई काम नही, चलो महादेवी की समाधि के सामने प्रनिश्रुत हों, हम तुम अब अलग न होंगे ! साम्राज्य तो नहीं है, मैं बचा हूँ, वह अपना ममत्व तुम्हें अर्पित करके उऋण होऊंगा, और एकांतवास करूँगा । देवसेना--सो न होगा सम्राट् ! मै दासी हू ! मालव ने देश के लिए उत्सर्ग किया है, उसका प्रतिदान लेकर मृत आत्मा का अपमान न करूंगी। सम्राट् ! स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य : ५०७ - -