पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५२८

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देखो यही पर सती जयमाला की छोटी-सी समाधि हैं। उसके गौरव की रक्षा होनी चाहिये!

स्कंदगुप्त―देवसेना! बंधुवर्मा की भी तो यही इच्छा थी।

देवसेना―परंतु क्षमा हो सम्राट्! उस समय आप विजया का स्वप्न देखते थे, अब प्रतिदान लेकर मैं उस महत्त्व को कलंकित न करूंगी! मैं आजीवन दासी बनी रहूगी; परंतु आपके प्राप्य में भाग न लूँगी।

स्कंदगुप्त―देवसेना! एकात मे किसी कानन के कोने मे तुम्हे देखता हुआ, जीवन व्यतीत करूंगा! साम्राज्य की इच्छा नही-एक बार कह दो!

देवसेना―तब तो और भी नही! मालव का महत्त्व तो रहेगा ही, परंतु उसका उद्देश्य भी सफल होना चाहिये। आपको अकर्मण्य बनाने के लिए देवसेना जीवित न रहेगी! सम्राट्-क्षमा हो। इस हृदय मे―आह! कहना ही पड़ा, स्कंदगुप्त को छोडकर न तो कोई दूसरा आया और न वह जायगा। अभिमानी भक्त के समान निष्काम होकर मुझे उसी की उपासना करने दीजिये, उसे कामना के भंवर मे फंसाकर क्लुषित न कीजिये। नाथ! मैं आपकी ही हू, मैंने अपने को दे दिया, अब उसके बदले कुछ लिया नही चाहती। (स्कंदगुप्त के पैरों पर गिरती है)

स्कंदगुप्त―(आँसू पोंछता हुआ) उठो देवसेना! तुम्हारी विजय हुई। आज से मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं कुमार-जीवन ही व्यतीत करूँगा, मेरी जननी की समाधि इसमे साक्षी है।

देवसेना―हैं, हैं―यह क्या किया!

स्कंदगुप्त―कल्याण का श्रीगणेश! यदि साम्राज्य का उद्धार कर सका―तो उसे पुरगुप्त के लिए निष्कंटक छोड सकूँगा।

देवसेना―(निश्वास लेकर) देवव्रत! तुम्हारी जय हो। जाऊँ आर्य पर्णदत्त सिवा को लिया लाऊ। (प्रस्थान)

[विजया का प्रवेश]

विजया―इतना रक्तपात और इतनी ममता, इतना मोह―जैसे सरस्वती के शोणित जल में इन्दीवर का विकास। इसी कारण अब मैं भी मरती हू। मेरे स्कंद। मेरे प्राणाधार!

स्कंदगुप्त―(घूमकर) यह कौन, इन्द्रजाल-मंत्र? अरे विजया!

विजया―हाँ, मैं ही हूँ।

स्कंदगुप्त―तुम कैसे?

विजया―तुम्हारे लिए अन्तस्तल की आशा जीवित है।

१ में दे दूँ और न फिर कुछ लूँ कामायनी, लज्जासगं (सं०)


५०८:प्रसाद वाङ्मय