पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५७३

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राक्षस-स्नातक ! अच्छे तो हो ? चाणक्य-बुरे कब थे बौद्ध अमात्य ! राक्षस T-आज हम लोग एक काम से आये हैं। आशा है कि तुम अपनी हठवादिता से मेरा और अपना दोनों का अपकार न करोगे। वररुचि-हाँ चाणक्य ! अमात्य का कहना मान लो। चाणक्य-भिक्षोपजीवी ब्राह्मण ! क्या बौद्धों का संग करते-करते तुम्हें अपनी गरिमा का सम्पूर्ण-विस्मरण हो गया ? चाटुकारों के समान हाँ में हां मिलाकर, जीवन की कठिनाइयों से बचकर, मुझे भी कुत्ते का पाठ पढ़ाना चाहते हो। भूलो मत, यदि राक्षम देवता हो जाय तो उसका विरोध करने के लिए मुझे ब्राह्मण से दैत्य बनना पड़ेगा। क्योंकि, मैं जानता हूं -वह भी इसका कपट रूप होगा। वररुचि -ब्राह्मण हो भाई । त्याग और क्षमा के प्रमाण-तपोनिधि ब्राह्मण हो। इतना.. चाणक्य-त्याग और क्षमा, तप, और विद्या--तेज और सम्मान के लिए है-लोहे और सोने के मामने सिर झुकाने के लिए हम लोग--ब्राह्मण नहीं बने हैं । हमारी दी हुई विभूति मे हमी को अपमानित किया जाय, ऐसा नहीं हो सकता। कात्यायन ! अब केवल पागिनि से गम न चलेगा। अर्थशास्त्र और दण्ड-नीति की आवश्यकता है। वररुचि-मै वात्तिक लिख रहा हूँ चाणक्य ! उसी के लिए तुम्हें सहकारी बनाना चाहता हूँ। तुम इस वन्दीगृह मे निकलो। चाणक्य-मै लेखक नही हूँ कात्यायन ! शास्त्र-प्रणेता हूँ--व्यवस्थापक हूँ। राक्षस-अच्छा, मै आज्ञा देता हूँ कि तुम विवाद न बढ़ाकर स्पष्ट उत्तर दो। तुम तक्षशिला में मगध के गुप्त-प्रणिधि बनकर नाना चाहते हा या मृत्यु चाहते हो? तुम्ही पर विश्वास करके क्यों भेजना चाहता हूँ, यह तुम्हारी स्वीकृति मिलने पर बताऊँगा। चाणक्य-जाना तो चाहता हूँ तक्षशिला, पर तुम्हारी सेवा के लिए नही । और सुनो-पर्वतेश्वर का नाश करने के लिए तो कदापि नहीं। राक्षस-यथेष्ट है, अधिक कहने की आवश्यकता नही। वररुचि-विष्णुगुप्त ! मेरा वात्तिक अधूरा रह जायगा। मान जाओ। तुमको पाणिनि के कुछ प्रयोगों का पता भी लगाना होगा जो उस शालातुरीय वैयाकरण ने लिखे है ! फिर से एक बार तक्षशिला जाने पर ही उनका चाणक्य-मेरे पास पाणिनि मे सिर खपाने का समय नही । भाषा ठीक करने से पहले मैं मनुष्यों को ठीक करना चाहता हूँ, समझे ! चन्द्रगुप्त : ५५३