पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५७४

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वररुचि-जिसने 'श्वयुवमघोनामनडते' सूत्र लिखा है, वह केवल वैयाकरण ही नही, दार्शनिक भी था। उसकी अवहेलना ! चाणक्य-यह मेरी समझ मे नही आता, मैं कुत्ता, साधारण युवक और इन्द्र को कभी एक सूत्र मे नही बांध सकता । कुत्ता-कुत्ता ही रहेगा, इन्द्र-इन्द्र ही, सुनो वररुचि ! मै कुत्ते को कुत्ता ही बनाना चाहता हूँ। नीचो के हाथ मे इन्द्र का अधिकार चले जाने से जो सुख होता है, उसे मै भोग रहा हूँ। तुम जाओ। वररुचि-क्या मुक्ति भी नही चाहते ? चाणक्य-तुम लोगो के हाथो से वह भी नही । राक्षस-अच्छा तो फिर तुम्हे अंधकूप मे जाना होगा। [चन्द्रगुप्त का रक्ताक्त खड्ग लिए सहसा प्रवेश | चाणक्य का बन्धन काटता है | राक्षस प्रहरियों को बुलाना चाहता है] चन्द्रगुप्त- चुप रहो अमात्य | शवो मे बोलने की शक्ति नही, तुम्हारे प्रहरी जीवित नही रहे। चाणक्य-मेरे शिष्य ! वत्स चन्द्रगुप्त । चन्द्रगुप्त-चलिए गुरुदेव । (खड्ग उठाकर राक्षम मे) यदि तुमने कुछ भी कोलाहल किया तो... [राक्षस बैठ जाता है-वररुचि गिर पड़ता है/चन्द्रगुप्त चाणक्य को लिए निकलता हुआ किवाड़ बन्द कर देता है] दृश्या न्त र नवम दृश्य [गांधार नरेश का प्रकोष्ठ/चिन्तायुक्त राजा प्रवेश करते हुए] राजा-बूढा हो चला, परन्तु मन बूढा न हुआ। बहुत दिनो तक तृष्णा को तृप्त करता रहा, पर तृप्त नही होती । आभीक तो अभी युवक है, उसके मन मे महत्त्वाकाक्षा का होना अनिवार्य है। उसका पथ कटिल है, गन्धर्व-नगर की-सी सफलता उसे अपने पीछे दौडा रही है (विचार कर) हाँ ठीक तो नही है, पर उन्नति के शिखर पर नाक के सीधे चढने मे बडी कठिनता है। (ठहर कर) रोक दूं ! अब से भी अच्छा है, जब वे घुस आवेगे तब तो गान्धार को भी वही कष्ट भोगना पड़ेगा, जो हम दूसरो को देना चाहते हैं- [अलका के साथ यवन और रक्षकों का प्रवेश] बेटी ! अलका! अलका-हां, महाराज, अलका । ५५४: प्रसाद वामय