पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/५८०

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सिल्यूकस-थोड़ा जल-इस सत्त्वपूर्ण पथिक की रक्षा करने के लिए पोड़ा जल चाहिये। चाणक्य-(जल के छोटे देकर) आप कौन है ? (चन्द्रगुप्त स्वस्थ होता है) सिल्यूकस-यवन सेनापति, तुम कौन हो ? चाणक्य-एक ब्राह्मण । सिल्यूकस-यह तो कोई बड़ा श्रीमान् पुरुष है-ब्राह्मण ! तुम इसके साथी हो ? चाणक्य-हाँ, मै इस राजकुमार का गुरु हूं-शिक्षक हूँ। सिल्यूकस-कहां निवास है ? चाणक्य--यह चन्द्रगुप्त मगध का निर्वासित राजकुमार है। सिल्यूकस-(कुछ विचार कर)- -अच्छा, अभी तो मेरे शिविर में चलो विश्राम करके फिर कही जाना। चन्द्रगुप्त-यह व्याघ्र कैसे मरा ? ओह, प्यास से मैं हतचेत हो गया था- आपने मेरे प्राणों की रक्षा की, मै कृतज्ञ हूँ। आज्ञा दीजिये, हम लोग, फिर उपस्थित होंगे, निश्चय जानिये। सिल्यूकस -जव तुम अचेत पडे थे तब यह तुम्हारे पास बैठा था। मैने विपद समझ कर इसे मार डाला-मै यवन सेनापति हूँ। चन्द्रगुप्त-६ -धन्यवाद ! भारतीय कृतघ्न नही होते-सेनापति ! मै आपका अनुगृहीन हूँ, अवश्य आपके पास आऊंगा। [तीनों जाते हैं/अलका का प्रवेश] अलका-आर्य चाणक्य और चन्द्रगुप्त-ये भी यवनों के साथी ! जब आंधी और करका-वृष्टि, अवर्षण और दावाग्नि का प्रकोप हो, तब देश की हरी-भरी खेती का रक्षक कोन है ? शून्य व्योम प्रश्न को--बिना उत्तर दिये लौटा देता है । ऐसे लोग भी आक्रमणकारियों के चंगुल मे फंस रहे हो, तब रक्षा की क्या आशा ? झेलम के पार सेना उतरना चाहती है, उन्मत्त पर्वतेश्वर अपने विचारों मे मग्न है। गान्धार छोड़कर चलं, नही एक बार महात्मा दाण्डयायन को नमस्कार कर लूं उस शान्ति-सन्दोह से कुछ प्रसाद लेकर तब अन्यत्र जाऊँगी। (जाती है) दृश्या न्त र बारहवाँ दृश्य [सिन्धु तट पर वाडयायन का आश्रम] दाण्डचायन--पवन एक क्षण विश्राम नही लेता, सिन्धु की बलधारा बही षा रही है, बादलों में नीचे पक्षियों का झुण्ड उड़ा जा रहा है, प्रत्येक परमाणु न जाने - ५६०: प्रसाद वाङ्मप