पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६

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महाभारत से आँखे बन्द रखते हैं। हाँ, अभिनय देखने के बाद दर्शक के मन पर त्रास, भय और अवसाद की छाया न रहे इसका विचार यहाँ प्रमुख रहा। प्रायश्चित्त की वस्तुता भारत के जातीय पराभव के तीसरे आवर्त्त की देन है––और, वह आवर्त्त लेखन काल में भी विद्यमान रहा, जबकि राष्ट्रीयता अज्ञात हो गई थी और सांस्कृतिक वर्चस्व उपहत हो गया था––'प्रायश्चित्त' का आशय पाठकों का ध्यान इस ओर आकर्षित करना है।

इन्हीं तीन नाटकों के उपरान्त राज्यश्री का प्रणयन हुआ और ऐतिहासिक नाटकों की शृंखला चली––यद्यपि, इसी बीच दो आन्यापदेशिक (ऐलिगरिकल) नाटक 'कामना' और 'एक घूँट' भी लिखित हैं। इनमें समाज की वे ऐतिहासिक फलश्रुतियाँ हैं जिनकी वस्तुता कामना के अर्थान्ध समाज के चित्र में है और वैसे समाज के खोखलेपन पर 'एक घूँट' व्यंग करता है।

राज्यश्री में उस जातीय पराभव के दूसरे आवर्त्त के दृश्य हैं जो शकों हूणों के आक्रमण से प्रथित हुआ था। पहला आवर्त्त सिकन्दर के आक्रमण से चला किन्तु वह अधिक समय नहीं टिका। राज्यश्री में राष्ट्रीयता और शौर्य के साथ ही त्याग एवं तितिक्षा के मानवीय गुणों का भी उत्कर्ष है।

इसके पश्चात् 'विशाख' की रचना हुई जिसका कथानक राजतरंगिणी में वर्णित एक घटना है। किन्तु ऐतिहासिकता को ठीक रखने के लिए उस नाटक के 'परिचय' में कल्हण की उस भूल का सुधार किया गया है जो उन्होंने गोनर्दीय वंश की प्राचीनता दिखाने के लिए किया है।

अब, बुद्ध के जीवन काल के महाजनपदों के सन्धि विग्रह के निदर्शन करानेवाले 'अजातशत्रु' की रचना हुई। इसके 'कथा प्रसंग' में इतिहास के प्रति लेखकीय दृष्टि मिलती है। इतिहास में घटनाओं की पुनरावृत्ति के प्रसंग मे रूपक-दर्शन का मौलिक सूत्र वहाँ प्राप्त है। कथाप्रसंग का वह अंश यहाँ उद्धृत है––

'इतिहास में घटनाओं की प्रायः पुनरावृत्ति देखी जाती है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि कोई नई घटना होती ही नहीं, किन्तु असाधारण नई घटना भी भविष्यत् में फिर होने की आशा रखती है। मानव-समाज की कल्पना का भण्डार अक्षय है, क्योंकि वह 'इच्छा-शक्ति का विकास' है। इन कल्पनाओं का, इच्छाओं का मूल सूत्र बहुत ही सूक्ष्म और अपरिस्फुट होता है। जब वह इच्छा-शक्ति किसी व्यक्ति या जाति में केन्द्रीभूत होकर अपना सफल विकसित रूप धारण करती है, तभी इतिहास की सृष्टि होती है। विश्व में कल्पना जब तक इयत्ता को नहीं प्राप्त होती तब तक वह

रूप परिवर्तन करती हुई पुनरावृत्ति करती ही जाती है। मानव-समाज की अभिलाषा अनन्त-स्रोत वाली है। पूर्व कल्पना के पूर्ण होते-होते एक नई कल्पना उसका विरोध करने लगती है और पूर्व कल्पना कुछ काल तक ठहर कर फिर होने के लिए अपना

VI : प्रसाद वाङ्मय