पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/७

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क्षेत्र प्रस्तुत करती है। इधर इतिहास का नवीन अध्याय खुलने लगता है। मानव-समाज के इतिहास का इसी प्रकार संकलन होता है।' (कथाप्रसंग––अजातशत्रु)

इन उद्धृत पंक्तियों से इतिहास के प्रति वह लेखकीय दृष्टि स्पष्ट है जो इतिहास के पदार्थ-सत्य और उसकी प्रति-कल स्फुरत्ता––भावसत्य का युगपत् स्पर्श करती है। इसी दृष्टि के प्रतिफलन में––पदार्थ-सत्य का स्पर्श करने वाली पंक्ति 'कामायनी' में मिलती है––'युगों के चट्टानों पर सृष्टि डाल पद चिह्न चली गम्भीर' : तथा, भाव-सत्य के प्रकटीकरण में––कामायनी में––जहाँ मानव इतिहास का आदि बिन्दु है, वे कहते हैं––'चेतना का सुन्दर इतिहास निखिल मानव भावों का सत्य, विश्व के हृदय पटल पर दिव्य अक्षरों से अंकित हो नित्य'। यद्यपि यह प्रसंग अधिक विस्तार चाहता है, किन्तु, त्वरागत बाध्यतावशात् संक्षिप्त-सा एक इंगितमात्र आवश्यक रहा। प्रसंगवशात् एक संक्षिप्त टिप्पणी पृष्ठ ४२१-४२३ पर स्कन्दगुप्त के आरंभ मे दी गई है।

तत्पश्चात 'जनमेजय का नागयज्ञ' रचित हुआ। भारतीय इतिहास के ज्ञात बिन्दु पर उसका कथानक अधिष्ठित है। इसके नायक (जनमेजय) के प्रपितामह अर्जुन को भारत-युद्ध में श्रीकृष्ण ने 'त्रैगुण्यो विषया वेदाः निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन' के द्वारा वैदिक कर्म-काण्ड के प्रतिकूल जो मन्त्र दिया वह ज्ञाताज्ञात किसी भी कारण से जनमेजय के माध्यम से सिद्ध हुआ और अश्वमेध––जो राष्ट्रीय वर्चस्व का सर्वोच्च प्रतिमान था––सहसा एक राजाज्ञा के द्वारा समाप्त हो गया। किन्तु राष्ट्रीय वर्चस्व जब विदेशी आक्रमणों से हीन हो उठा तब शुंग-काल में पतंजलि की प्रेरणा से अश्वमेध का पुनरुद्धार हुआ : और, गुप्तों – भारशिवों ने उसका अनुसरण भी किया।

अब, ऐतिहासिक नाटकों के क्रम में दो प्रमुख नाटक आते हैं––'स्कन्दगुप्त' जो लेखन की दृष्टि से 'कामायनी' का समकालीन है और भावदृष्टि से सजातीय भी है : तथा, वह 'चन्द्रगुप्त' है जिसका प्रकाशन १९३१ में हुआ किन्तु उस पर मनन-चिन्तन संवत् १९६६ अर्थात ईसवीय १९०८-९ से अग्रसर था। 'चन्द्रगुप्त' का कथानक भारत पर प्रथम विदेशी आक्रमण से सम्बन्धित है।

'सज्जन' के द्वारा आर्य जाति का उदात्त सामाजिक दर्शन द्योतित हुआ है, और 'प्रायश्चित' में आर्य जाति के पराभव के उस तीसरे आवर्त्त का चित्रण हुआ है जो आनुषंगिक हेतुओं के चलते अद्यापि आर्य-वर्चस्व को घर्षित करता सांस्कृतिक शून्यता का कारण बना है, उसी शून्य में आर्य-भाव और उसके रक्त का––मूल्य विलीन होता जा रहा है। इसके पूर्व पराभव का दूसरा आवर्त्त शक-हूण आक्रमण-काल में उठा और पहला आवर्त्त सिकन्दर के नेतृत्व वाले यवन (ग्रीक) आक्रमण के समय से प्रथित हुआ था। किन्तु उन दोनों आवर्तों में सांस्कृतिक क्षतियाँ उतनी न हो सकीं क्योंकि आक्रामकों ने यहाँ की संस्कृति को यथाशक्य आत्मसात् करने की चेष्टा

पुरोवाक् : VII