पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६०६

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कार्य के लिए बाध्य हों। हाँ, भेट करने के लिए मालव सदैव प्रस्तुत है-चाहे सन्धि- परिषद् में या रणभूमि मे। यवन-तो यही जाकर कह दूं? सिहरण-हाँ जाओ (रक्षकों से) इन्हे सीमा तक पहुंचा दो। [रक्षकों के साथ यवन का प्रस्थान] चन्द्रगुप्त-मालव, हम लोगो ने भयानक दायित्व उठाया है, इसका निर्वाह करना होगा ! सिहरण--जीवन-मरण से खेलते हुए करेगे वीरवर ! चन्द्रगुप्त-परन्तु सुनो तो, यवन लोग आर्यों की रणनीति से नही लड़ते वे हमी लोगो के युद्ध है, जिनमे रणभूमि के पास ही स्वच्छदता से कृषक हल चलाता है। यवन आतंक फैलाना जानते है और उसे अपनी रण-नीति का प्रधान अंग मानते है। निरीह साधारण प्रजा को लूटना, गांवो को जलाना, उनके भीषण परन्तु साधारण कार्य है। सिहरण-युद्ध-सीमा के पार के लोगो को भिन्न-भिन्न दुर्गो मे एकत्र होने की आज्ञा प्रचारित हो गयी है। जो होगा-देखा जायगा। चन्द्रगुप्त-पर एक बात सदैव ध्यान मे रखनी होगी। सिहरण-क्या ? चन्द्रगुप्त-यही, कि हमे आक्रमणकारी यवनो को यहां से हटाना है, और उन्हे जिस प्रकार हो, भारतीय सीमा के बाहर करना है। इसलिए-शत्रु की ही नीति से युद्ध करना होगा। सिंहरण-सेनापति की सब आज्ञाएँ मानी जायेगी, चलिये [सबका प्रस्थान] नवम दृश्य [शिविर के समीप कल्याणी और चाणक्य] कल्याणी-आर्य अब मुझे लौटने की आज्ञा दीजिये, क्योकि सिकन्दर ने विपाशा को अपने आक्रमण की सीमा बना ली है। अग्रसर होने की संभावना नही, और अमात्य राक्षस भी आ गये है, उनके साथ मेर। जाना ही उचित है। चाणक्य -और चन्द्रगुप्त से क्या कह दिया जाय ? कल्याणी-मैं नहीं जानती। चाणक्य-परंतु राजकुमारी, उसका असीम प्रेमपूर्ण हृदय मग्न हो जायगा। वह बिना पतवार की नौका के सदश इधर-उधर बहेगा। ५८६ : प्रसाद वाङ्मय