पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६११

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[प्रस्थान-ग्रीक सैनिकों का प्रवेश] चन्दन-अरे ! ये !! ये !!! कोन ? कहां से ? सैनिक-हमारे घोड़ों के लिए"" चन्दन-साईस चाहिये क्या ? सैनिक-(चन्दन और धनदत्त को देखकर)-ओ हो ! तुम लोग ठीक समय पर मिले । बताओ यहाँ चारा कहां मिलेगा ? पकड़ लो इनको (ग्रीक सैनिक घेर लेते हैं-सैनिक धनदत्त को देखकर) बड़ा मोटा है यह धनदत्त-हमलोग तो कुछ कर ही नही सकते । सनिक-क्यों! चन्दन-नियति का निर्देश ! जो करावेगी यही होगा ! सैनिक-तो समझ लो मैं तुम्हारी नियति है ! देखो जी इन सबों के पाम क्या है ! यह गुप्तचर तो नहीं। (सब धनदत्त को गठरियों को देखने लगते हैं)। धनदत्त-अरे ! छू लिया। उसमें सब .. सैनिक-क्या ? भन्दन-ठहरो भाई । पहले मुझे भाग जाने दो। धनदत्त--(सैनिक को पिटारी खोलते देखकर) अरे ! सर्प !! सर्प !!! सैनिक-(पिटारी छोड़कर) क्या ? चन्दन-मणिधर ! [ग्रीक सैनिक आश्चर्य से] सैनिक-(आश्चर्य से) क्या तुम लोग सपेरे हो ? धनदत्त-जी ! जी !! जी ! ! ! यह (माधवी को देखकर) यह सांप पकड़ना जानती है । भागे हुए पुरुषो को भी खूब ही पकड लेती है । चन्दन-और ! और !! माधवी-ठहरो ! मैं पिटारी खोल दूं। [खोलने का अभिनय करती है/चन्दन उछल कूद मचाता है|इतने में राजपुरुष सैनिकों के साथ आता है/ग्रीक सैनिक भागते हैं।सबका प्रस्थान] ग्यारहवाँ दृश्य [मालव दुर्ग के भीतरी भाग में एक सूना परकोटा] मालविका अलका-इधर तो कोई भी सैनिक नहीं है। यदि शत्रु इधर से आवे तब? चन्द्रगुप्त : ५९१