पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६३४

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मालविका-इस पत्र को सुवासिनी नाम की स्त्री के पास पहुंचाने में । नन्द-तो किसने तुम्हें भेजा है ? मालविका-मैं नाम तो नहीं जानती । नन्द-हूँ (प्रतिहार से) पत्र कहाँ है ? (प्रतिहार पत्र और मुद्रा देता है। नन्द उसे पढ़ता है) तुमको बतलाना पड़ेगा, किसने तुमको पत्र दिया है ? बोलो, शीघ्र बोलो, राक्षस ने भेजा था ? मालविका [-राक्षस नहीं, वह मनुष्य था । नन्द-दुष्टे शीघ्र बता ? वह राक्षस ही रहा होगा। मालविका जैसा आप समझ लें -(क्रोध से) प्रतिहारी ! इसे भी ले जाओ उसी विद्रोहियों की मांद में । ठहरो, पहले जाकर शीघ्र सुवासिनी और राक्षस को, चाहे जिस अवस्था में हों-ले जाओ। (नन्द चिन्तित भाव से दूसरी ओर टहलता है/मालविका बन्दी होती है नन्द पैर पटकते हुए) आज सबको एक साथ ही सूली पर चढ़ा दूंगा। नहीं हाथियों के पैरों तले कुचलवाऊँगा । यह कथा समाप्त होनी चाहिए। नन्द नीच जन्मा है न ! यह विद्रोह उसी के लिए किया जा रहा है, तो फिर उसे भी दिखा देना है कि वह क्या है, नाम सुनकर लोग कांप उठे। प्रेम न सही, भय का ही सम्मान हो। [अन्धकार में दृश्यान्तर] नन्द- नवम दृश्य [कुसुमपुर के प्रान्तपथ में चाणक्य और पर्वतेश्वर] चाणक्य-चन्द्रगुप्त कहाँ है ? पर्वतेश्वर-सार्थवाह के रूप में युद्ध-व्यवसायियों के साथ आ रहे है । शीघ्र ही पहुँच जाने की सम्भावना है । चाणक्य-और द्वन्द्व में क्या हुआ ? पर्वतेश्वर-- चन्द्रगुप्त ने बड़ी वीरता से युद्ध किया। समस्त उत्तरापथ में फिलिप्स के मारे जाने पर नया उत्साह फैल गया है। आर्य ! बहुत से प्रमुख यवन और आर्यगण की उपस्थिति में वह युद्ध हुआ-वह खड्ग-परीक्षा देखने योग्य थी ! वह वीर-दृश्य अभिनन्दनीय था ! चाणक्य--यवन लोगों के क्या भाव थे ? पर्वतेश्वर-सिंहरण अपनी सेना के साथ रंगशाला की रक्षा कर रहा था, कुछ हलचल तो हुई, परन्तु वह पराजय का क्षोभ था । यूडे मिस, जो उसका सहकारी था, - ६१४:प्रसाद वाङ्मय