पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६३५

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अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। किसी प्रकार वह ठण्डा पड़ा। यूडेमिस सिकन्दर की आशा को प्रतीक्षा में रुका था। अकस्मात् सिकन्दर के मरने का समाचार मिला। यवन लोग अब अपनी सोच रहे हैं, चन्द्रगुप्त सिंहरण को वही छोड़कर यहां चूला आया, क्योंकि आपका आदेश था। [अलका का प्रवेश] अलका--गुरुदेव, यज्ञ का आरम्भ है । चाणक्य-मालविका कहाँ है ? अलका-वह बन्द की गयी और राक्षस इत्यादि भी बन्दी होने ही वाले हैं । वह भी ठीक ऐसे अवसर पर जब उनका परिणय हो रहा है। क्योंकि आज ही चाणक्य-तब तुम जाओ, अलके ! उम उत्सव से तू अलग न रह । उनके पकड़े जाने के अवसर पर ही नगर मे उत्तेजना फैल सकती है। जाओ--शीघ्र । [अलका का प्रस्थान] पर्वतेश्वर -मुझे क्या आजा है ? चाणक्य-कुछ चुने हुए अश्वारोहियो को साथ लेकर प्रस्तुत रहना। चन्द्रगुप्त जब भीतर से युद्ध आरम्भ करे, उस समय तुमको नगर द्वार पर आक्रमण करना होगा। (गुफा का द्वार खुलता है-मौर्य मालविका, वररुचि, चन्द्रगुप्त जननी को लिए शकटार निकलता है) आओ मौर्य ? मौर्य-हमलोगों के उद्धारकर्ता, आप ही महात्मा चाणक्य हे । मालविका -हाँ यही है । मौर्य -प्रणाम ! चाणक्य-शत्रु से प्रतिशोध लेने के लिए जियो सेनापति ! नन्द के पापो की पूर्णता ने तुम्हारा उद्धार किया है अब तुम्हारा अवसर है। मौर्य - - इन दुर्बल हड्डियो मे अन्धकूप की भयानकता खटखटा रही है। शकटार-और रक्तमय गम्भीर वीभत्म दृश्य, हत्या का निष्ठ आह्वान कर रहा है। (चन्द्रगुप्त का प्रवेश/माता-पिता के चरग छूता है) चन्द्रगुप्त-पिता ! तुम्हारी यह दशा एक-एक पीडा की, प्रत्येक निष्ठुरता की गिनती होगी-मेरी मां ! उन सबका प्रतिकार होगा, प्रतिशोध लिया जायेगा ! ओह ! मेरा जीवन व्यर्थ है ! नन्द ! चाणक्य-चन्द्रगुप्त, सफलता का एक ही क्षण होता है। आवेश और कर्तव्य में बहुत अन्तर है। चन्द्रगुप्त-गुरुदेव आज्ञा दीजिये । चाणक्य-देखो, उधर नागरिक लोग आ रहे है । सम्भवतः यही अवसर है तुमलोगों के भी भीतर जाने का-विद्रोह फैलाने का । चन्द्रगुप्त : ६१५