पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६४४

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सुवासिनी-ठहरो अमात्य । मै चाणक्य को इधर तो एक प्रकार से विस्मृत ही हो गयी थी, तुम इस सोयी हुई भ्रांति को न जगाओ ! (जाती है) राक्षस -चाणक्य भूल सकता है ? कभी नहीं। वह राजनीति का आचार्य हो जाय, वह विरक्त तपस्वी हो जाय, परन्तु मुवासिनी का चित्र-यदि अंकित हो गया हो तो-उहूँ-(सोचता है)। [नेपथ्य से गान] कंसी कड़ी रूप की ज्वाला ? पड़ता है पतंग-सा इसमें मन होकर मतवाला, सांध्य गगन-सी रागमयी यह बड़ी तीव्र है हाला, लौह श्रृंखला से न कड़ी क्या-यह फूलों की माला ? राक्षस- (सचेत होकर) तो चाणक्य मे फिर मेरी टक्कर होगी, होने दो ! वह अधिक सुखदायी होगा। आज से हृदय का यही ध्येय रहा। शकटार से किस मुंह से प्रस्ताव करूँ कि वह सुवासिनी को मेरे हाथ सौप दे, यह असम्भव है ! तो मगध मे फिर एक आंधी आवे । चलूं, चन्द्रगुप्त भी तो नही हे चन्द्रगुप्त सम्राट हो सकता है तो दूसरे भी इसके अधिकारी है। कल्याणी की मृत्यु से बहुत से लोग उत्तेजित है । आहुति की आवश्यकता है, वह्नि प्रज्वलित है। (जाता है) दृश्यां त र तृतीय दृश्य [परिषद्-गृह] राक्षस -(प्रवेश करके) तो आपलोगो की सम्मति है कि विजयोत्सव न मनाया जाय ? मगध का उत्कर्ष, उसके गर्व का दिन यों ही फीका रह जाय ? शकटार-मैं तो चाहता हूँ परन्तु आर्य चाणक्य की सम्मति-इसमे नही है। कात्यायन-जो कार्य बिना किमी आडम्बर के हो जाय, वही तो अच्छा है । [मौर्य सेनापति और उनकी स्त्री का प्रवेश] मौर्य-विजयी होकर चन्द्रगुप्त लोट रहा है, हमलोग आज भी उत्सव न मनाने पायेगे ? राजकीय आवरण मे यह कैसी दासता है ! मौर्य-पत्नी -तब यही स्पष्ट हो जाना चाहिये कि कौन इस साम्राज्य का अधीश्वर है ! विजयी चन्द्रगुप्त अथवा यह ब्राह्मण या परिषद् ? चाणक्य-(राक्षस की ओर देखकर) राक्षम तुम्हारे मन मे क्या है ? राक्षस-मैं क्या जानूं- जैसी सब लोगों की इच्छा। ६२४: प्रसाद वाङ्मय