सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

कात्यायन --तुम निष्ठुर हो ! चाणक्य-अच्छा तुम सहृदय हो-एक बात कहूँ-कर सकोगे ? बोलो, चन्द्रगुप्त और उस यवन-बाला के परिणय मे आचार्य बनोगे? कात्यायन -क्या कह रहे हो? यह हंसी !, चाणक्य-यही है तुम्हारे दया की परीक्षा-देखू तुम क्या करते हो। क्या इसमे यवन-बाला का अमंगल है ? कात्यायन - (सोचकर) मंगल है-मैं प्रस्तुत हूँ। चाणक्य -(हंसकर) तब तुम निश्चय ही एक सहृदय व्यक्ति हो । कात्यायन-अच्छा, तो मैं जाता हूँ। चाणक्य-हो, जाओ। स्मरण रखना, हमलोगो के जीवन मे यह अन्तिम संघर्ष है । मुझे आज आभीक से मिलना है । यह लोलुप राजा-देखू, क्या करता है । [कात्यायन का प्रस्थान/चर का प्रवेश] चर-महामात्य की जय हो। चाणक्य इस समय जय की बडी आवश्यता है। आभीक को यदि जय कर सका तो, सर्वत्र जय है । बोलो आभीक ने क्या कहा चर-वे स्वयं आ रहे है। चाणक्य-आने दो, तुम [चर का प्रस्थान आंभीक का प्रवेश] आंभीक-प्रणाम, ब्राह्मण देवता ! चाणक्य कल्याण हो राजन? तुम्हे भय तो नही लगता ? मै एफ दुर्नाम 1 ? जाओ। व्यक्ति हूँ। आंभीक-नही आर्य, आप कैसी बात कहते है ! चाणक्य-तो ठीक है, इसी तक्षशिला के मठ मे एक दिन मैने कहा था-'सो कैसे होगा क्षत्रिय-तभी तो म्लेच्छ लोग साम्राज्य बना रहे है और आर्यजाति पतन के कगार पर खड़ी एक धक्के राह देख रही है।' आंभीक-स्मरण है। चाणक्य-तुम्हारी भूल ने कितना कुत्सित दृश्य दिखाया-इसे भी सम्भवतः तुम न भूले होगे। आंभीक-नही। चाणक्य - तुम जानते हो चन्द्रगुप्त ने दक्षिणापथ के स्वर्णगिरि से पञ्चनद तक, सौराष्ट्र से बंग तक एक महान् साम्राज्य स्थापित किया है। यह साम्राज्य मगध का नहीं है, यह आर्य साम्राज्य है। उत्तरापथ के सब प्रमुख गणतन्त्र मालव, क्षुद्रक और चन्द्रगुप्त : ६३३