पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६५४

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? यौधेय आदि सिंहरण के नेतृत्व मे इस साम्राज्य के अंग हैं । केवल तुम्ही इससे अलग हो। इस द्वितीय यवन आक्रमण से तुम भारत के द्वार की रक्षा कर लोगे, या पहले के ही समान उत्कोच लेकर-द्वार खोलकर--सब झंझटों से अलग हो जाना चाहते हो? आंभीक-आर्य, वही-त्रुटि बार-बार न होगी। चाणक्य-तब साम्राज्य झेलम तट की रक्षा करेगा। सिंधु-तट का भार तुम्हारे ऊपर रहा। आंभीक --अकेले मैं यवनो का आक्रमण रोकने में असमर्थ हूँ। चाणक्य-फिर क्या उपाय है ? (नेपथ्य से जयघोष/आंभीक चकित होकर देखने लगता है) क्या है -मुन रहे हो आंभीक -समझ मे नही आया । (नेपथ्य की ओर देखकर) वह एक स्त्री आगे-आगे कुछ गाती हुई आ रही है और उसके साथ बडी-सी भीड है । [कोलाहल समीप होता है]] चाणक्य-आओ, हमलोग अलग हटकर देखे । [दोनों अलग छिप जाते है/आर्य पताका लिए गाती अलका का भीड़ के साथ प्रवेश] अलका तक्षशिला के वीर नागरिको । एक बार, अभी-अभी सम्राट चन्द्रगुप्त से इसका उद्धार क्यिा था, आर्यावर्त्त-प्यारा देश ग्रीको की विजय-लालसा से पुन पद-दलित हो जा रहा है । तब तुम्हारा शासक तटस्थ रहने का ढोग करके पुण्यभूमि को परतन्त्रता की शृखला पहनाने का दृश्य राजमहल के झरोखो से देखेगा। तुम्हारा राजा कापर है, और तुम नागरिक-हम लोग उसका परिणाम देख चुके है मां | हम लोग प्रस्तुत हैं। अलका-यही तो।

[समवेत गायन]

हिमाद्रि तुंग शृङ्ग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला स्वतन्त्रता पुकारती-
अमर्त्य वीरपुत्र हो दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पन्थ है-बढ़े चलो-बढ़े चलो!
असंख्य कीर्त्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य-दाह-सी।
सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी!
अराति सैन्य-सिंधु में-सुबाड़वाग्नि से जलो!
प्रवीर हो जयी बनो-बढ़े चलो, बढ़े चलो!

[सबका प्रस्थान/चाणक्य और आंभीक बाहर आते हैं]

? ६३४: प्रसाद वाङ्मय