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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६५५

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आंभीक- यह अलका है। तक्षशिला में उत्तेजना फैलाती हूई-यह अलका चाणक्य-हां, आंभीक ! तुम उसे बन्दी बनाओ-मुंह बन्द करो ! आंभीक-(कुछ सोचकर) असम्भव ! मैं भी साम्राज्य में सम्मिलित होऊंगा! चाणक्य-यह मै कैसे कहूँ ? मेरी लक्ष्मी-अलका--ने आर्य गौरव के लिए क्या-क्या कष्ट नहीं उठाये ! वह भी तो इसी वंश की बालिका है ! फिर तुम तो पुरुष हो, तुम्ही सोचकर देखो। आंभीक-व्यर्थ का अभिमान अब मुझे देश के कल्याण में बाधक न सिद्ध कर सकेगा। आर्य चाणक्य, मै आर्य-साम्राज्य के बाहर नही हूँ। चाणक्य-तब तक्षशिला के दुर्ग वर मगध-सेना अधिकार करेगी। यह तुम सहन करोने ? (आँभीक सिर नीचा करके विचारता है) क्षत्रिय कह देना और बात है, करना और ! आंभीक-(आवेश में) हार ही चुका हूँ, पराधीन हो ही चुका हूँ। अब स्वदेश के अधीन होने मे उससे अधिक कलंक तो मुझे लगेगा नही, आर्य चाणक्य ! नाणक्य-तो इस गांधार और पंचनद का शासन-सूत्र होगा अलका के हाथ में और तक्षशिला होगी उसकी राजधानी, बोलो-स्वीकार है ? आंभीक अलका ? चाणक्य-हाँ, अलका और मिहरण इस महाप्रदेश के शामक होंगे। आंभीक -सब स्वीकार है, ब्राह्मण ! मै केवल एक बार यवनों के सम्मुख अपना कलंक धोने का अवसर चाहता हूँ। रणक्षेत्र मे एक सैनिक होना चाहता हूं- और कुछ नहीं। चाणक्य-तुम्हारा अभीष्ट पूर्ण हो ! [चाणक्य संकेत करता है/सिहरण और अलका का प्रवेश] अलका-भाई, आभीक । आंभीक-बहन, अलका ! तू छोटी है, पर मेरी श्रद्धा का आधार है। मैं भूल करता था बहन ! तक्षशिला के लिए अलका पर्याप्त है, आंभीक की आवश्यकता न थी। अलका-भाई क्या कहते हो ? आंभीक-मैं देशद्रोही हूँ, नीच--अधम हूँ, तूने गांधार के राजवंश का मुख उज्ज्वल किया है--राज्यासन के योग्य तू ही है। अलका-भाई, अब भी तुम्हारा श्रम नहीं गया ! राज्य किसी का नहीं है ! सुशासन का है--जन्मभूमि के भक्तों में आज जागरण है। देखते नहीं, प्राच्य में सूर्योदय हुआ है। स्वयं सम्राट चन्द्रगुप्त तक इस महान् आर्य-साम्राज्य के सेवक हैं। चन्द्रगुप्त : ६३५