पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६६७

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चन्द्रगुप्त- यह क्या राजकुमारी ! (छुरी उसके हाथ से छीन लेता है)- कार्नेलिया-निर्दयी हो चन्द्रगुप्त ! मेरे बूढे पिता की हत्या कर चुके होंगे। सम्राट् हो जाने पर आँखें रक्त देखने की प्यासी हो जाती है न ! चन्द्रगुप्त -राजकुमारी ! तुम्हारे पिता आ रहे हैं ! [सैनिकों से घिरे सिल्यूकस का प्रवेश] कार्नेलिया--(हाथों से मुंह छिपाकर) आह ! विजेता सिल्यूकस को भी चन्द्रगुप्त के हाथों से पराजित होना पड़ा। सिल्यूकस-हाँ बेटी ! चन्द्रगुप्त -यवन सम्राट् ! आर्य कृतघ्न नहीं होते । आपको सुरक्षित स्थान पर पहुंचा देना ही मेरा कर्तव्य था। सिंधु के इस पार अपने सेना-निवेश मे आप है, मेरे बन्दी नही ! में जाता हूं। सिल्यूकस-इतनी महत्ता ! चन्द्रगुप्त-राजकुमारी । पिताजी को विश्राम की आवश्यकता है। फिर हम- लोग मित्रों के समान मिल सकते है । [चन्द्रगुप्त का सैनिकों के साथ प्रस्थान/कार्नेलिया उसे देखती रहती है|दृश्यान्तर] बारहवाँ दृश्य 1 [पथ में साइबटियस और मेगास्थनीज] साइटियस-उसने तो हमलोगो को मुक्त कर दिया था फिर अवरोध क्यो ? मेगास्थनीज-समस्त ग्रीक शिरि बन्दी है पर उसके मन्त्री चाणक्य की चाल है। मालव और तक्षशिला की सेना हिगत पथ मे खडी है, लौटना असम्भव है। साइबटियस-क्या चाणक्य वह तो चन्द्रगुप्त से ऋद्ध होकर कही चला गया था न-राक्षस ने तो यही कहा था, क्या वह झूठा था ? मेगास्थनीज सब षड्यन्त्र मे मिले थे। शिविर को अरक्षित अवस्था मे छोड़कर कहे बिना सुवासिनी को लेकर खिसक गया। अभी भी न समझे ! इधर चाणक्य ने आज मुझसे यह भी कहा है कि मुझे औटिगोनस के आक्रमण की भी सूचना मिली है । (सिल्यूकस का प्रवेश)। सिल्यूकस-क्या ? औटिगोनस ! मेगास्थनीज हाँ सम्राट्, इस मर्म से अवगत होकर भारतीय कुछ नियमों पर ही मैत्री किया चाहते है । चन्द्रगुप्त . ६४७