पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

हुए प्रवेश | पीछे-पीछे और भी कई स्त्री-पुरुषो का आपस में संकेत से बातें करते हुए आना-वनलता जैसे उस ओर ध्यान ही नहीं देती। आनंद-(एक ढोला रेशमी कुरता पहने हुए है, जिसकी बाहें उसे बार-बार चढ़ानी पड़ती है, बीच-बीच में चदरा भी सम्हाल लेता है | पान को रूमाल से पोंछते हुए प्रेमलता की ओर गहरी दृष्टि से देखकर) जैसे उजली धूप सब को हँसाती हुई आलोक फैला देती है, जैसे उल्लास की मुक्त प्रेरणा फूलों की पंखडियो को गद्गद कर देती है, जैसे सुरभि का शीतल झोंका सबका आलिंगन करने के लिए विह्वल रहता है, वैसे ही जीवन की निरंतर परिस्थिति होनी चाहिए। प्रेमलता-किंतु जीवन की झझटे, अकांक्षाएँ, ऐसा अवसर आने दें तब न ! बीच-बीच मे ऐसा अवसर आ जाने पर भी वे चिरपरिचित निष्ठुर विचार गुर्राने लगते है। तब । आनंद-उन्हे पुचकार दो, सहला दो, तब भी न माने, तो किसी एक का पक्ष न लो। बहुत संभव है कि वे आपस मे लड जायें और तब तुम तटस्थ दर्शक मात्र बन जाओ और खिलखिलाकर हंसते हुए वह दृश्य देख सको । देख सकोगी न ! प्रेमलता- असभव ! विचारो का आक्रमण तो सीधे मुझी पर होता है। फिर वे परस्पर कैसे लड़ने लगे ? (स्वगत) अहा, कितना मधुर यह प्रभात है ! यह मेरा मन जो गुदीगुदी का अनुभव कर रहा है, उसका मघर्ष किमसे करा दें। [मुकुल भवों को चढ़ाकर अपनी एक हथेली पर तर्जनी से प्रहार करता है, जैसे उसकी समझ में प्रेमलता की बात बहुत सोच-विचारकर कही गई हो / आनंद दोनों को देखता है, फिर उसकी दृष्टि वनलता की ओर चली जाती है] आनद-(संभलते हुए) जब तुम्हारे हृदय मे एक कटु विचार आता है, उसके पहले से क्या कोई मधुर भाव प्रस्तुत नही रहता ? जिससे तुलना करके तुम कटुता का अनुभव करती हो। प्रेमलता-हां, ऐसा ही समझ में आता है। आनंद -तो इससे स्पष्ट हो जाता है कि पवित्र मन-मदिर मे दो कटु. और मधुर-भावो का द्वंद्व चला करता है, और उन्ही में से एक, दूसरे पर आतंक जमा लेता है। प्रेमलता-लेता है किंतु, यह बात मेरी समझ मे... आनंद-(हंसकर) न आई होगी। किंतु तुम उस द्वंद्व के प्रभाव से मुक्त हो सकती हो। मान लो कि तुम किसी से स्नेह करती हो (ठहरकर प्रेमलता की ६६२ . प्रसाद वाङ्मय