पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६९२

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सुन्दर प्रेरणा आपकी आँखों में, कपोलों पर, सब जगह, चांदनी-सी खिल जायगी। और संभवत. आप ब्याह करने के लिए"" रसाल-(डॉटकर) अच्छा बस, अब जाइए । चंदुला--(मुककर) जाता हूँ। किंतु इस सेवक को न भूलियेगा। सुधारस भेजने के लिए शीघ्र ही पत्र लिखियेगा । मै प्रतीक्षा करूंगा (जाता है) [कुछ लोग गंभीर होकर निश्वास लेते हैं जैसे प्राण बचा हो, और कुछ हंसने लगते हैं] रसाल-(निश्वास लेकर) ओह ! कितना पतन है ! कितना वीभत्स ! क्तिना निर्दय ! मानवता ! तू कहाँ है ? आनंद-आनन्द मे, मेरे कवि-मित्र । यह जो दुःखवाद का पचड़ा सब धर्मों ने, दार्शनिकों ने गाया है उसका रहस्य क्या है ? डर उत्पन्न करना ! बिभीषिका फलाना ! जिससे स्निग्ध गंभीर जल मे, अबाधगति से तैरनेवाली मछली-सी विश्व- सागर की मानवता चारों ओर जाल-ही-जाल देखे, उसे जल न दिखाई पड़े; वह डरी हुई, संकुचित-सी अपने लिए सदैव कोई रक्षा की जगह खोजती रहे। सबसे भयभीत, सब से सशंक ! रसाल-अब मेरी समझ मे आया ! वनलता-क्या? रसाल यही कि हम लोगों को शोक-संगीतों से अपना पीछा छुड़ा लेना चाहिये । आनंदातिरेक से आत्मा को साकारता ग्रहण करना ही जीवन है। उसे सफल बनाने के लिए स्वच्छंद प्रेम करना सीखना-सिखाना होगा। वनलता-(आश्चर्य से) सीखना होगा और सिखाना होगा ? क्या उसके लिए कोई पाठशाला खुलनी चाहिए ? आनन्द-नही; पाठशाला की कोई आवश्यकता इस शिक्षा के लिए नहीं है। हम लोग वस्तु या व्यक्ति विशेष से मोह करके और लोगों से द्वेष करना सीखते है न ! उसे छोड देने ही से सब काम चल जायगा। प्रमलता-तो फिर हम लोग किसी प्रिय वस्तु पर अधिक आकर्षित न हो- आपका यही तात्पर्य है क्या ? [आनंद कुछ बोलने की चेष्टा करता है कि आश्रम का झाड़ वाला और उसकी स्त्री कलह करती हुई आ जाती है | सब लोग उनकी बातें सुनने लगते हैं] झाड़ वाला-(हाथ से झाड़, को हिलाकर) तो तेरे लिए में दूसरे दिन उजली माडी कहाँ मे लाऊँ ? और कहाँ से उठा लाऊँ सत्ताईस रुपये का सितार (सब लोगों की ओर देखकर) आप लोगो ने यह अच्छ। रोग फैलाया। ६७२: प्रसाद वाङ्मय