पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 2.djvu/६९४

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चलिये श्रीमतीजी ! उहूँ आप तो सुनेंगी न ! आप ठहरिये। (मारू देना बंद कर देता है) आनंद-मुझे भी आज आश्रम से विदा होना है। आप लोग आशा दीजिए। किंतु""नही, अब मै उस विषय पर अधिक कुछ न कहकर केवल इतना ही कह देना चाहता हूँ कि इस परिणाम से-स्वच्छंद प्रेम को बंधन मे डालने के कुफल-आप लोग परिचित तो हैं; पर उसे टालते रहने का अब समय नहीं है । [वनलता, झाड़ वाला और उसकी स्त्री को छोड़कर सबका प्रस्थान] वनलता-(झाडू वाले से) क्यों जी, तुम तो पढ़े-लिखे मनुष्य हो, समझदार हो? झाड़ वाला-हाँ, देवि, किंतु समझदारी मे एक दुर्गुण है। उस पर चाहे अन्य लोग कितने ही अत्याचार कर लें; परन्तु वह नही कर सकता-ठीक-ठीक उत्तर भी नहीं देने पाता ! (झाड़ फटकार कर एक वृक्ष से टिका देता है) वनलता--प्लेटो-अफलातून ने कहा है कि मनुष्य-जीवन के लिए संगीत और व्यायाम दोनों ही आवश्यक हैं। हृदय में संगीत और शरीर मे व्यायाम नवजीवन की धारा बहाता रहता है । मनुष्य झाड़ वाला--और पतंजलि ने कहा है कि जो मनुष्य-क्लेश, कर्म और विपाक इत्यादि से अर्थात्-रहित-तात्पर्य, वही-वही कुछ-कुछ सूना-सूना जो पुरुष मनुष्य हो, वही ईश्वर है । वनलता-इससे क्या ? झाड़ वाला-आपने प्लेटो को पुकारा, मैने पतंजलि को बुलाया। आपने एक प्रमाण कहकर अपनी बातों का समर्थन किया और मैंने भी एक बड़े आदमी का नाम ले लिया। उन्होने इन बातो को जिस रूप मे समझा था वैसी मेरी और आपकी परिस्थिति नही --समय नही, हृदय नही। फिर मुझे तो अपनी स्त्री को समझाना है, और आपको अपने पति का हृदय समझना है। वनलता--(चौंककर) मुझे समझना है और तुमको समझाना है ! कहते क्या हो? झाड़ वाला-जी-(अपनी स्त्री से) कहो, अब भी तुम समझ सकी हो या नहीं ! झाड़ वाले की स्त्री--मैने समझ लिया है कि मुझे सितार की आवश्यकता नहीं, क्योंकि- झाडू वाला-क्योंकि हम लोग दीवार से घिरे हुए एक बड़े भारी कुंजवन में सुखी और संतुष्ट रहना सीखने के लिए बंदी बने हैं। जब जगत से, आकांक्षा और अभाव के संसार से, कामना और प्राप्ति के उपायों की क्रीड़ा से विरत होकर एक ६७४: प्रसाद वाङ्मय